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धर्मरत्न की योग्यता पर
रहे हुए प्राणी महा कठिनता से जीते हैं । जीवित रखने वाले अनेक औषध तथा आयुर्वेद के उपचार तथा मृत्युजय आदि सरस मन्त्र भी मौत से बचा नहीं सकते । अहह, ! धूर्त तथा आर्य को, निर्धन तथा महा धनवान को मन्दबुद्धि तथा प्राज्ञ को, समवर्ती (मृत्यु) कुछ भी अन्तर रखे बिना निरन्तर खाता रहता है। इसलिये ताप नाशक तथा अजरामर पददाता अमृत समान श्रमणधर्म को छोड़कर इस जगत में कहीं भी अन्य कोई भी शरण नहीं।
यह सुनकर राजा यतीश्वर के चरणों को नमन करके बोला कि-मैं श्रावकधर्म का पालन कर चुका हूँ, और यतिधर्म करने की निरन्तर इच्छा करता हूँ। तथापि पूर्वभवोपार्जित (कर्म से हुए) कठिन रोग वश शरीर से दुःखित हूँ, जिससे दीक्षा नहीं ले सकता । अतः अब मुझे क्या करना उचित है ?
तब गुरु राजा का अल्पायु जानकर बोले कि-हे नरेश्वर ! तेरे अतिचारों की आलोचना कर । प्राणियों को खमा, समस्त पाप स्थानों को वोसिराव (तज), जिन-सिद्ध-साधु और धर्म की भलीभांति शरण ले । दुष्कृत की गर्दा कर, सुकृत की अनुमोदना कर, शुभ भावना कर, और हर्ष से अनशन ले । पंच नमस्कार मन्त्र का स्मरण कर और राज्य तथा राष्ट्र की ममता छोड़, इस प्रकार गुरु की वाणी सुनकर राजा हर्षित हुआ।
पश्चात् उसने अपने पुत्र हरिषेण को, हर्षे से पृथ्वी का भार सौंपा, संघ को खमाया और जिन-मन्दिरों में पूजा कराई। तत्पश्चात् उसने गुरु की साक्षी से समाहित मन से अनशन लेकर, स्वध्याय ध्यान में तत्पर रह सात दिन व्यतीत किये। इतने में उसका चारित्रावरणीय कर्म टूटा, जिससे वह अंजली जोड़कर गुरु को इस भांति विनन्ती करने लगा।