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________________ धर्मरत्न की योग्यता पर 20 చిద की ज्योति नहीं दीखती, वैसे ही इसके शरीर में किया हुआ अभ्यंग भी नहीं जाना जा सकता । १५६ इन्द्र ने इसके रूप का जैसा वर्णन किया था, वैसा ही बल्कि उससे विशेष अधिक यह जान पड़ता है । सत्य बात यह है किमहात्मा कभी भी मिथ्यावचन नहीं बोलते, (ऐसा वे देव विचार करने लगे ।) अब चक्री ने उनको पूछा कि तुम किस प्रयोजन से यहां आये हो ? तब वे बोले कि हे भूप ! तीनों जगत् में तेरा रूप अनुपम वर्णित किया जाता है, यह सुन हम महान् कौतुकवश हो, हे नरेन्द्रशार्दूल ! तुम्हें देखने के लिये दूर से यहां आये हैं । S · हे नरेश्वर ! लोक में तेरा रूप जैसा अतुल वर्णित किया जाता है, उससे भी विशेष हम देखते हैं । इस प्रकार उन ब्राह्मणों का वचन सुनकर हास्य से होठ फरका कर राजा बोला किअभ्यंग से सब जगह लिप्त अंग में अभी यह कान्ति किस गिनती में है । हे भद्र ब्राह्मणों ! क्षण भर बाहर जाकर तुम खड़े रहो, ताकि हम स्नान का प्रसंग पूरा करलें, पश्चात् विविध वस्त्रों से सजा हुआ और नाना भूषणों से श्रृंगारित मेरा रूप रत्न जड़ित सुवर्ण के समान (दर्शनीय हो जावेगा ।) पुनः तुम देखना । पश्चात् वह नहा धोकर अलंकार तथा नेपथ्य (वेष ) से शृंगारित होकर, आकाश में जैसे सूर्य प्रकाशित होता है, वैसे सभास्थान में आ बैठा । अब ब्राह्मणों को आज्ञा मिलने पर पुनः वें राजा का रूप देखते हुए दव (अग्नि) से जले हुए बांस के समान तुरन्त मुरझा गये । इस समय सकल सभासद चमक कर 'अरे रे ! यह क्या हो गया ? ' यह सोचकर संकेत से परस्पर देखने लगे ।
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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