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________________ पांच प्रकार के निग्रंथ का स्वरूप १४१ इनमें निग्रंथ तथा स्नातक निश्चयतः अप्रमादी होते हैं । परन्तु वे तो कदाचित ही होते हैं. अर्थात कि श्रेणी पर चढ़ते और सयोगी अयोगी रूप दो गुणस्थानों में होते हैं, जिससे वे तीर्थ धारण करने के हेतु नहीं । पुलाक भी जब कभी लब्धि होता है तभी होता है । इसलिये ये तीनों संप्रति विच्छिन्न हुए हैं । जिससे बकुश और कुशील ही निरन्तर तीर्थ प्रवाह के हेतु हैं । इसीसे कहा है कि__ “निर्ग्रन्थ, स्नातक और पुलाक इन तीनों का विच्छेद है । बकुश, कुशील साधु तीर्थ पर्यन्त होते रहेंगे" । अब इनको तो प्रमादजनित दोष अवश्य लगता है । अतः जो उससे साधु वर्जनीय होय तो सब वर्ज़नीय हो जावेगे। यह बात मन में लाकर सूत्रकार कहते हैं बकुसकुसीला तित्थं दोसलवा तेसु नियमसंभविणो । जइ तेहि वजणिजो अवजणि ना तो नत्थि ॥१३५।। मूल का अर्थ- बकुश और कुशील तीर्थ हैं, और उनमें तो दोष के लव अवश्य संभव हैं । अतः जो उनके द्वारा वे वर्जनीय हों तो अवर्जनीय कोई भी न रहेगा। ___टीका का अर्थ- उपरोक्त बकुश और कुशील तीर्थ अर्थात् 'भामा सो सत्यभामा' इस न्याय से सर्व तीर्थकरों के तीर्थसंतान करने वाले होते हैं। इसीसे उनमें दोष लव अर्थात् सूक्ष्म दोष निश्चयतः संभव हैं। क्योंकि- उनके प्रमत्त और अप्रमत्त नामक अंतमुहूर्त काल के दो गुणस्थानक हैं। उसमें जब प्रमत्त-गुणस्थान में वर्तते हों, उस समय साधु को प्रमाद का सद्भाव कायम रहने से सूक्ष्मदोष लव अवश्य लगता है। परन्तु जब तक सातवे प्रायश्चित का अपराध हो तब तक वह चारित्रीय ही है, तदनंतर अचारित्रीय होता है। कहा भी है कि
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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