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________________ गुरु का स्वरूप १२९ ___ वे उसे कहने लगी कि- हे महाभागे ! तू ने उस समय धर्म में तत्पर होकर भी करता नहीं छोड़ी, जिससे तेरी यह दुर्गति हुई है। इसलिये अभी भी इस करता को अक्रू रभाव रूप अग्नि से वन के समान जलाकर अपने को समभाव रूप पानी से सिंचित कर । ____ हे कुत्ती ! दुःख के टालने वाले जिन-धर्म में मन रख सदैव प्रद्वष को त्याग और हृदय में संतोष रख । इत्यादि उनकी अति आतुरता देख तथा वाणी सुनकर वह कुत्ती चौंककर बारम्बार सोचने लगी कि- यह क्या है ? वह बहुत विचार करते-करते जातिस्मरण ज्ञान को प्राप्त हुई। जिससे वैराग्य स्फुरित होने से पूर्वकृत सकल दुष्कृतों की बारंबार निन्दा करने लगी । पश्चात् उसने सिद्ध की साक्षी से अनशन ले आयुष्य पूर्ण कर वैमानिक देवत्व प्राप्त किया और क्रमशः मुक्ति को जावेगी। इस प्रकार प्रद्वेष रखने वाली कुन्तलदेवी को हुआ कडुवा फल सुनकर हे भव्यों ! तुम संसार के भय से डर कर निरन्तर प्रसन्न मन रखो। . इस प्रकार कुतलदेवी का उदाहरण पूर्ण हुआ। कोई पूछे कि- क्या कोई भी गुरु गुण-संपत्ति के हेतु सेवा करना वा कोई विशिष्ट गुरु ? उत्तर यह है कि गुणवं च इमो सुत्ते जहत्थगुरुसहभायणं इट्ठो। ...गुणसंपया दरिदो जहुत्तफलदायगो न मो॥१३०॥
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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