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________________ १२४ गुरुकुलवास का स्वरूप शब्द शुद्ध उपाश्रय वस्त्रपात्र आदि लेना, सो आगम के ज्ञानी पुरुषों ने ठीक नहीं कहा। देखो आगम में इस प्रकार कहा है कि "गुरुकुल आदि को छोड़कर शुद्ध-भिक्षा करने का यत्न करना, सो यहां शबरं नामक राजा ने भगवां वस्त्रधारी अपने गुरु की मोरपीलियां लूटने के लिये उसे पर्गों से स्पर्श किये बिना मार डालने का हुक्म दिया उसके समान है" । शुद्ध उंछ अर्थात् निर्दोष भिक्षा । आदिशब्द से कलह तथा ममत्वत्याग में जो यत्न अर्थात् उद्यम है । वह गुरुकुल के त्याग से । तथा अपिशब्द से सूत्रार्थ में हानि पहुँचाकर, तथा ग्लानादिक को छोड़कर जो करे, सो यहां अर्थात् जैनमत में कैसा कहा हुआ है. सो कहते हैं कि-शबर नामक राजा ने उसके भगवाधारी गुरु की मोरपींछ लेने के लिये उनको मार डालने की आज्ञा देते पांव से न छूने का आदेश दिया, तद्वत् है । शबर राजा की बात इस प्रकार है किसी संस्थान में शबर नामक राजा था । वह सरजस्क (भगवां वस्त्र पहिरनेवाले बाबा) का भक्त था । उसको मिलने के लिये एक समय सिर पर मोरपंख का छत्र धारण किये हुए गुरु उसके यहां आया । वह सन्मान पाकर बैठा । तब राजा की रानी उसका चमकदार चन्द्रों वाला छत्र देखकर कुतूहल वश मांगने लगी किन्तु उस देश में मोर न होने से गुरु देने की इच्छा न बताते उठ कर अपने स्थान को आया । तब रानी न खाने की हठ लेकर राजा को प्रोत्साहित करने लगी । राजा के बारम्बार मांगने पर भी जब वह न देने लगा तब स्त्री के प्र ेम से उन्मत्त होकर अपने सुभटों को आज्ञा दी कि -
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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