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________________ - संविग्न गीतार्थ की आचरण ०० 36 मूल का अर्थ - श्रुत में अन्यथा कहा हुआ होने पर भी कालादिक कारण की अपेक्षा से संविग्न गीतार्थों ने कुछ अन्यथा ही आचरा दीखता है । टीका का अर्थ-श्रत अर्थात् सर्वज्ञ प्रणीत आगम, उसमें अन्यथा अर्थात् दूसरी रीति से कही हुई कोई बात, कालादिक कारण की अपेक्षा से अर्थात् दुषमकाल आदि का स्वरूप विचार करके संविग्न गीतार्थों ने भिन्न ही रीति से आचरी हुई प्रत्यक्ष दीखती है । वे कौन-कौन सी बातें हैं सो कहते हैं: ऋप्पाणं पावरणं - अग्गोयरचाउ झोलियाभिक्खा | ओवग्गहियकडाहय--तु वयमुहदाण दोराई || ८२ ॥ मूल का अर्थ - कल्पों का प्रावरण, अग्रावतार का त्याग, झोली द्वारा भिक्षा, और कटाहक, तुरंबक मुख दान, डोरा औपग्रहिक उपकरण | टीका का अर्थ - कल्पों याने साढ़े तीन हाथ लम्बे और अढ़ाई हाथ चौड़े आगम में बताये हुए वस्त्रों का प्रावरण याने चारों ओर लपेट कर पहिरना । आगम में ऐसा कहा है किकारणवश गोचरी को जाते वे वस्त्र लपेटे हुए ही कंधे पर रखना, पर अभी वे पहिरे जाते हैं । अग्रावतार याने. एक जाति का नीचे पहिरने का वस्त्र, जो कि साधुजन में प्रसिद्ध है । उसका त्याग अर्थात् चोलपट्टे के लिये किया हुआ फेरफार तथा झोली अर्थात् दो गांठ
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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