SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ गुरुकुलवास का स्वरूप गुणों का मूलभूत अर्थात् प्रथम कारण गुरुकुलवास है। इस प्रकार आचरांग के प्रथम सूत्र में अर्थात "सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खाय” इस वाक्य में कहा है। सारांश यह है किश्रीसुधर्मस्वामी जंबूस्वामी को कहते थे कि-"भगवान के पास बसते हुए मैंने आगे कही जाने वाली बात सुनी” यह कहने का भावार्थ यह है कि-समस्त धर्मार्थियों ने गुरुसेवा करनी चाहिये । अतएव चारित्र की इच्छा करने वाले मनुष्यों ने गच्छ में बसना चाहिये । क्योंकि-गच्छ में बसने से निम्न गुण होते हैं। ___ "गुरु का परिवार गच्छ कहलाता है। वहां वसने से बहुत निर्जरा की जा सकती है, तथा सारणा आदि के कारण विनय संपादन होने से दोष स्वीकार नहीं होता। यद्यपि किसी का भाव चला गया हो तथापि उसे दूसरे बना रखते हैं । जैसेकि-बांस के झण्ड में रहने वाला कटा हुआ बांस भी भूमि पर नहीं गिरता" । ___ पूर्व पक्ष-कोई पूछे कि-आगम में तो यति ने आहारशुद्धि रखना, यही उसके चारित्र की शुद्धि का हेतु कहा है | कहा है कि-"पिंड की शुद्धि न रखे वह अचारित्रीय है। इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं, और चारित्र गया तो सम्पूर्ण दीक्षा निरर्थक है । तथा जिनों ने जिनशासन की मूल भिक्षाचर्या ही बताई है । अतः इसमें जो अकलाये उसे मंद श्रद्धावान जानना चाहिये" । अब पिंड-शुद्धि तो अधिकों में बसते कठिनाई ही से रखी जा सकती है। अतः अकेले रहकर उसीको रखना (संपादन करना) चाहिये। ज्ञानादिक प्राप्त करने का क्या काम है। मूलभूत चारित्र ही पालना चाहिये | मूल होने पर ही लाभ की चिंता श्रेष्ठ है । उत्तरः-ऐसा न कहो । क्योंकि-अकेला फिरने वाला गुरु के आधीन नहीं होता। वैसे ही अन्य साधु की अपेक्षा भी उसको
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy