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________________ ११८ आचार्य के छत्तीस गुण भिक्षार्थ किसी के घर जाकर, वहां बैठना । स्नान दो प्रकार का है-आंख का पलक प्रक्षालन करना भी देशस्नान माना जाता है और सर्वांग का प्रक्षालन करना सर्वस्नान है । शोभा याने विभूषा करना। इन छहों का वर्जन करना, इस भांति अठारह स्थल हुए । इनको आचार्य के गुण इसलिये मानना चाहिये किइनके अपराध में वे सम्यक् प्रायश्चित्त जानते हैं । आचारवस्त्र आदि आठ गुण पूर्ववत् है। __ दश प्रकार का प्रायश्चित्त यह है:आलोचना, प्रतिक्रमण, मिश्र. विवेक, कायोत्सर्ग, तप, छेद, मूल, अनवस्थाप्यता, और पारांचित । ___ समीपस्थ घरों से लाई हुई भिक्षा आदि गुरु को बताना, सो आलोचनाई प्रायश्चित है । अनाभोगादि से प्रमार्जन करते अथवा थूकते कदाचित् जीव का वध नहीं भी हुआ हो तो भी मिथ्यादुष्कृतं देना, सो प्रतिक्रमणाई है । संभ्रम ओर भय आदि में सर्व व्रतों में अतिचार लगने से आलोचना प्रतिक्रमणरूप उभयाह है। उपयोग पूर्वक लिया हुआ अन्न पीछे से अशुद्ध होने पर परठ माना सो विवेकाई है । गमनागमन और विहार आदि में पचीस उच्छवास का कायोत्सर्ग करना, सो व्युत्सर्गाई है। जिसके प्रतिसेवन से निर्विकृति से लेकर छःमासी तक का तप दिया जाय, सो तपाई है। इस प्रकार जहां पंचकादि पर्याय का छेदन हो, सो छेदाह है। जहां पुनः व्रतारोपण हो, सो मूलाह है। जहां अमुक काम अनाचीर्ण हो, वहां तक व्रतों में स्थापित न हुआ जाय, सो अनवस्थाप्याई है, और जहां तप, लिंग. क्षेत्र और काल का अन्त आ जाय, सो पारांचित है। - इन व्रत पदकादि से छत्तीस सूरिगुण होते हैं। इस प्रकार गणवान गुरुओं के चरण की सेवा अर्थात् यथारोति आराधना,
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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