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गुणानुराग का फल
अपने हित का उपदेश सुनने में भी क्रोध होता है और जो हित समझते हुए भी जो शिथिल होना । सो सब इस दुनिया में दुरात्मा प्रमाद रूप शत्रु का विलास है। _ यह जानकर साहस पूर्वक इस दुर्जय शत्रु को जीतना चाहिये क्यों क- व्याधियों व शत्रुओं की जो कभी भी उपेक्षा करे तो वे हानि किये बिना नहीं रहते । इत्यादि अनेक वचनों से उनको संवेग उपजाकर शुद्ध-धर्म में प्रवृत करे, परन्तु ऐसा तब हो सकता है कि- जब वे प्रज्ञापनीय हों, और अत्यन्त अयोग्य हों तो, उन पर राग-द्वेष न लाकर “ निर्गुणों में उपेक्षा करना" इस वाक्य का अनुसरण करके उपेक्षा करे । इस प्रकार गाथा का अर्थ है।
गुणानुराग ही का फल कह बताते हैंउत्तमगुणाणुराया कानाइदोसो अपत्तावि । गुणसंग्या परत्थवि न दुल्लहा होइ भवाणं ।। १२५ ।।
मूल का अर्थ- उत्तम गुणों के अनुराग से कालादिक के दोष द्वारा, कदाचित् इस भव में गुण संपदा न मिले तो भी परभव में भव्यजीवों को दुर्लभ नहीं होती। ____टीका का अर्थ- उत्तम अर्थात् उत्कृष्ट गुण अर्थात् ज्ञानादिक गुण उनमें अनुराग अर्थात् पूर्ण प्रीति उसके कारण, काल अर्थात् दुःषमाकाल तथा आदिशब्द से संघयण आदि लेना । तद्रप दोष अर्थात् विघ्नकारक होने से दूषण उसके योग से वर्तमान जन्म में गुणसंपत् अर्थात् परिपूर्ण धर्मसामग्री नहीं मिली हो, तो भी पर-भव में तो वह भव्य-जनों को दुर्लभ कदापि नहीं होती, ऐसा सोचा जा सकता है। ____ इस प्रकार गुणानुराग रूप छुठा लिङ्ग कहा। अब गुर्वाज्ञाराधन उप सातवां लिङ्ग कहते हैं