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________________ पुरुषोत्तम का चरित्र १०५ - श्रीकृष्ण ने पूछा कि- भगवन् ! भवदेव नामक कौन आचार्य थे ? भगवान बोले कि-इस भारत में पूर्वकाल में भवदेव नामक आचार्य था । वह बुद्धि से तो वृहस्पति के समान था, परन्तु चारित्र में किंचित् ढीले मन वाला था । उसके एक बन्धुदत्त नामक शिष्य था । वह निर्मल चारित्रवान् , सूक्ष्मबुद्धि वाला, वादलब्धिसंपन्न तके तथा आगम में कुशल, मत्सर रहित और विनीत था । इससे उसके पास जिनसमय के ज्ञाता श्रमण तथा शास्त्र में कुशल श्रावक विनय पूर्वक हाथ जोड़कर उपयोग पूर्वक जिनागम सुनते थे और उसे तहत्ति करके मानते थे तथा उसे चारित्रवान् समझ कर उसका बहुत मान करते थे। ____ तब भवदेवसूरि मत्सर से परिपूर्ण होकर हृदय में सोचने लगे कि- मुझे छोड़कर ये मुग्ध लोग इसकी सेवा क्यों करते हैं ? अथवा ये मुनि और श्रावक तो भोले हैं, इससे चाहे जो करें, परन्तु यह चेला मेरा दीक्षित होकर ऐसा क्यों करता है ? मैंने ही इसे बहुश्रत किया है और मैंने ही इसे महान गुणों में स्थापित किया है । मेरे होते भी मुझे न गिनकर इस प्रकार अलग पर्षदा भरता है। " राजा के जीते-जी उसके छत्र का भंग न हो" इस कहावत को भी मैं सोचता हूँ कि- उस अनार्य ने सुनी नहीं। .. अब जो मैं इसको धर्मकथा करने से रोकता हूँ तो ये मुग्ध लोग मुझे मत्सरी मान बैठेगें। अतः इस मूर्ख शिष्य की ओर मुझे अभी उपेक्षा ही करना उचित है। यह सोचकर आचार्य ने मत्सर से भरे रहकर कुछ दिन व्यतीत किये। - इतने में पाटलीपुत्र नगर से संघ की आज्ञा से उनके पास एक मुनियो का संघ आया । तब मुनियों ने खड़े होकर उसे मान
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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