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________________ मार्गानुसारिणी क्रिया जो जीत अशुद्धिकारक और पार्श्वस्थ प्रमादी सयतों ने आचरा हो, वह अधिक का आचरित हो तो भी शुद्ध चारित्र वाले को प्रमाण नहीं है । बहुजन इसलिये कहे कि - एकाध संविग्न कभी अनाभोग और अनवबोध आदि से वितथ आचरण भी करे, अतः वह अकेला प्रमाण नहीं माना जाता। इसलिये संविग्न बहुजनाचरित हो, सो मार्ग है। इसके लिये कहते हैं किउभयानुसारिणी अर्थात् आगम की अबाधा से सौंविग्नों से आचराती जो क्रिया, सो मार्गानुसारिणी क्रिया है । पूर्व पक्ष-आगम ही को मार्ग कहना युक्त है । बहुजनाचीर्ण को मार्ग ठहराना अयुक्त है । क्योंकि उसमें शास्त्रान्तर के साथ विरोध पड़ता है तथा आगम अप्रमाणभूत हो जाता है । वह इस प्रकार कि जो बहुजन प्रवृत्ति मात्र ही को कबूल रखें, तो लौकिक-धर्म छोड़ना योग्य नहीं होगा, क्योंकि उसमें बहुत से मनुष्य प्रवृत्त होते हैं । अतएव जो आज्ञा के अनुसार हो, वही समझदार पुरुष ने करना चाहिये । बहुजनों का क्या काम है ? कारण कि - कल्याणार्थी बहु नहीं होते । जहां तक उचित ज्येष्ठ विद्यमान हो, वहां तक अनुज्येष्ठ को पूजना अयुक्त माना जाता हैं। वैसे ही भगवान का प्रकट वचन मिल जाने पर भी लोक का उदाहरण देना अयुक्त ही है । आगम को तो केवली भी अप्रमाणित नहीं करते । यतः श्रुतानुसार उपयोगवन्त रहकर श्रुतज्ञानी जो अशुद्ध आहार ले आवे तो उसे केवली भी खाते हैं । अन्यथा आगम अप्रमाण हो जाता है । और आगम कायम होते भी आचरित को प्रमाण करें तो आगम की स्पष्टतः लघुता होती है । उत्तर- यह बात इस प्रकार नहीं । क्योंकि इस सूत्र का और शास्त्रान्तर का विषय-विभाग तुम्हें ज्ञात नहीं है ।
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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