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________________ ९६ अशक्य अनुष्ठान करने पर जिन के पास से जिसने लिया हो उसी से अंगीकार किया जाता है। वह परिहारविशुद्ध-चारित्र प्रथम और अन्तिम तीर्थकर के समय में होता है। जिनकल्पि दो प्रकार के हैं:-पाणिपात्र और पात्रधारी। उन प्रत्येक के पुनः दो भेद हैं, प्रावरणी और अप्रावरणी। जिनकल्प अंगीकार करते पांच प्रकार की तुलना की जाती है । यथा-तप से, सूत्र से, सत्त्व से, एकत्व से और बल से। उनमें तपसे तो छः मासो तप करे। सूत्र से उत्कृष्ट रोति से कुछ कम दश पूर्व ओर जघन्य से आठ पूर्व और नवमें को तीन वस्तु जाने । सत्त्व से सिंहादिक के भय से रहित रहे । एकत्व से दूसरे की सहायता की अपेक्षा न रखे और बल से पहिले तीन संवयण में प्रवृर्तमान हो वह जिनकल्प को योग्य होता है। जिनकलि साधु एक वसति में उत्कृष्ट से सात रहते हैं परन्तु उससे अधिक कभी भी नहीं रहते। साधु की बारह प्रतिमा इस प्रकार हैं:-प्रथम सात मासादि है। आठवीं, नवमी और दसवीं सात अहोरात्र की हैं। ग्यारहवीं एक अहोरात्र की ओर बारहवीं एक रात को है। इनको संवयण और धैर्यवाला भावितात्मा महासत्त्व होता है वह भलीभांति गुरु की अनुज्ञा लेकर स्वीकार करता है । वह जब तक दस पूर्व नहीं हुए हों तब तक गच्छ में निर्मायो होकर रहे, उसे जघन्य से नव में पूर्व को तृतीय वस्तु इतना श्रु तज्ञान होता है। - बह शरीर का ममत्व छोड़ जिनकल्पि के समान उपसर्ग सहता है। उसकी एषणा अभिग्रहवाली होती है और उसका अलेपकृत भक्त होता है।
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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