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________________ धनमित्र का दृष्टांत इभ्य हुई है तथा गंगदत्त मरकर यह धनमित्र हुआ है । उस व्यंतरदेव ने अपना व्यतिकर स्मरण करके क्रुद्ध हो इभ्य के तीन पुत्रों को क्रमशः मार डाले हैं। . तब राजा ने इभ्य के सामने देखने पर वह बोला कि-यह बात सत्य है, किन्तु वे क्यों मर गये, उसका कारण तो अभी ही जाना है। पुनः गुरु बोले कि-यह रत्नावली भी उसी व्यन्तर ने हरी थी. व धनमित्र ने पूर्व में दोष दिया था इससे अभी उसे दोष लगा है। किन्तु धनमित्र के धर्म में स्थित स्थिरभाव से प्रसन्न हुए सम्यकदृष्टि देवों ने उस व्यन्तर को दबा कर यह रत्नावली उससे पटकाई है। . तब राजा बोला कि-अब वह व्यन्तर सुमित्र को और क्या करेगा ? तब बानी बोले कि-इस रत्नावली के साथ बह सुमित्र का सम्पूर्ण धन हरण करेगा, पश्चात् इभ्य आर्त ध्यान से मरकर बहुत से भवों में भटकेगा और व्यन्तर का जीव भी नाना प्रकार से बैर लेगा। __यह सुन राजा ने संवेग पाकर, रत्नावली सुमित्र को सौंप, पुत्र को राज्य दे चारित्र ग्रहण किया । धनमित्र भी ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब सौंप केवली से दीक्षा लेकर क्रम से मोक्ष को गया । इस प्रकार सदाचारीजनों को हर्ष करने वाला धनमित्र का चरित्र जानकर सन्मार्गी भव्य जनों ! यथा तथा रीति से परगृह गमन का वर्जन करो। इस प्रकार धनमित्र का चरित्र है। इस प्रकार शीलवान् का परगृहगमनवर्जन रूप दूसरा भेद कहा । अब अनुद्भट वेष रूप तीसरा भेद प्रकट करने के हेतु आधी गाथा कहते हैं
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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