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________________ धनमित्र का दृष्टांत राजकुल में जा, न्याय कराकर भी तेरे पास से वह लूगा। तब धनमित्र बोला कि- जो अच्छा लगे, सो करो। तब सुमित्र ने राजा को जाकर कहा कि- धनभित्र ने मेरी रत्नावली चुराई है। राजा विचार करने लगा कि- यह बात उसमें किसी प्रकार संभव नहीं और यह सुमित्र निश्चय पूर्वक यह बात कहता है, अतः धनमित्र को पूछना चाहिये । यह विचारकर राजा ने उसको बुला कर पूछने पर वह जैसा बना था वैसा कहने लगा। तब राजा विस्मय पाकर बोला कि- हे इ! अब क्या करना चाहिये ? वह बोला कि- हे देव ! इसने निश्चय रत्नावली ली है । तब धनमित्र बोला कि- हे देव ! मैं यह कलंक नहीं सह सकता, अतः आप कहो वैसे दिन से मैं इसका विश्वास कराऊँ। राजा बोला कि- हे इ! क्या तू यह बात स्वीकार करता है, कि- यह धनमित्र लोहे की तपी हुई फाल उठावे । तब उसके हाँ भरने पर राजा ने उसके लिये दिन मुकर्रर किया । पश्चात् वे दोनों अपने अपने घर आये, अब धनमित्र धर्म में विशेष तत्पर होकर शुद्ध मन से रहने लगा । क्रमशः वह दिन आ पहुँचने पर उसने स्नान करके जिनेश्वर को अष्ट प्रकारी पूजा करी, साथ ही सम्यक्ष्टि देवों का कायोत्सर्ग किया । पश्चात् फाल तपाने तथा राजा व नगरलोकों के सन्मुख आ बैठने पर धनमित्र बहुत से नागरिकों के साथ दिव्य स्थान में आ पहुँचा । उक्त इभ्य भी वहां आ पहुँचा। अब धनमित्र ज्यों-ही फाल लेने को उद्यत हुआ, त्योंही उक्त इभ्य की रत्नावली कटी पर से नीचे पड़ी। तब राजा ने कहा कि- हे इभ्य ! यह क्या है ? तब वह उदास होकर कुछ भी उत्तर नहीं दे सका । पश्चात् राजा ने धन
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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