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________________ धनमित्र का दृष्टांत ७५ इस प्रकार घोर अभिग्रह लेकर गुरु के चरणों में वन्दन कर नगर के भीतर किसी श्रावक के घर आकर ठहरा। वह सूर्योदय होने पर माली के साथ बाग में से फूल चुनकर गृह देवालय की प्रतिमाओं को नित्य भक्ति से पूजने लगा। दूसरे प्रहर में लोक व आगम से अविरुद्वता के साथ व्यापार करने लगा, उसमें उसे बिना परिश्रम खाने जितना मिलने लगा। . ... ज्यों ज्यों वह धर्म में स्थिर होने लगा त्यों त्यों उसके पास धन बढ़ने लगा, वह उस धन में से बहुत-सा भाग धर्म में खर्व करने लगा व थोड़ा भाग घर लाता । अब उसे एक महर्द्धिक श्रावक ने धर्म-निष्ठ देखकर अपनी पुत्री विवाह दी। वे दोनों व्यक्ति धर्म परायण हो गये। वह किसी समय गुड़ व तैल बेचने को गोकुल में गया, उस समय उसके पास का गुड़ दूसरे के घर जाते-जाते धूप से तप कर पिचल कर गिरने लगा। यह देख उक्त गोकुल का मेहतर उसे लेने के लिये निधान में रखे हुए तांबे के कलश में पड़े हुए कोयले बाहिर डालने लगा, वे अंगारे धनमित्र की दृष्टि में सुवर्ण के रूप में दीखे । तब वह पूछने लगा कि-इनको बाहिर क्यों डालते हो? तब मेहतर बोला कि- हमारे बाप ने इन्हें सोना कहकर अभी तक हमको ठगा था। किन्तु अब इन्हें अंगारे देखकर इस भांति बाहिर फेंकते हैं, तब शुद्ध हृदय सेठ बोला कि- हे भद्र ! यह तो वास्तव में सुवर्ण ही है। तब मेहतर बोला कि- अरे मूढ़ ! क्या तू पागल है या धूर्त है अथवा तू ने धतूरा खाया है ? या दरिद्र को सब सुवर्ण ही दृष्टि में आता है ? जो यह सुवर्ण हो तो मुझे थोड़ा गुड़ व तैल देकर इसे तू ही लेजा । सेठ ने वैसा ही किया ।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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