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________________ ७४ परगृह गमन वर्जन पर नामक एक गृहपति था, उसकी मगधा नामक स्त्री थी। वह गृहपति धर्म का नाम भी नहीं जानता था । वह दूसरों को भी धर्म करने में उत्सुक होते देखकर विघ्न डालता था और मत्सर से भरा हुआ रहकर किसी को भी लाभ होता देखकर सहन नहीं कर सकता था । वह जो व्यापार में किसी को अधिक लाभ देखता तो उसे सात मुँह से ताव चढ़ आता था, इस प्रकार उसके दिन बीतते थे । v किसी दिन सुन्दर नामक श्रावक उसे करुणा से मुनियों के पास ले गया, वहां उसको उन्होंने इस प्रकार धर्म सुनाया उपशम, विवेक और संवर वाला तथा यथाशक्ति नियम और तप वाला जिन धर्म पालना चाहिये, जिससे कि- अपार लक्ष्मी प्राप्त हो । यह सुनकर कुछ भाव तथा कुछ दाक्षिण्यता से उसने नित्य प्रति देव दर्शन करने आदि के कुछ अभिग्रह लिये । मुनियों को नमन कर उसने अपने घर आकर अति प्रमादी हो कर कुछ अभिग्रह समूल तोड़ डाले, तथा मूढ़ मन रखकर कुछ को अतिचार लगाये । वह मात्र एक चैत्यवंदन के अभिग्रह को अतिचार रहित होकर पालने लगा । वही कालक्रम से मरकर तू हुआ है। इस प्रकार पूर्वकृत दुष्कृत वश तूने ऐसा फल पाया है और जिनवन्दन के प्रभाव से तुझे मेरे दर्शन हुए हैं। यह सुन धनमित्र संवेग पाकर मुनीश्वर को नमन करके अनेक दुःखों के नाशक गृही धर्म को सम्यक् रीति से अंगीकार करने लगा । दिवस व रात्रि के प्रथम प्रहर में धर्म कार्य के अतिरिक्त मैं अन्य कार्य नहीं करूगा तथा सहसाकार और अनाभोग सिवाय किसी के साथ प्रद्वेष भी नहीं करूंगा ।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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