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________________ व्रत ज्ञान के उपर तुगिया नगरी श्रावक का दृष्टांत ४५ अतः हे देवानुप्रिय ! वैसे स्थविर भगवन्तों का नाम गोत्र सुनने मात्र से ही वास्तव में महाफल होता हैं तो भला उनके सामने जाना, वन्दन करना, नमन करना, पूछना, पर्युपासना करना उसमें कहना ही क्या है ? अतः चलो, हम उनको वन्दना करें, नमन करें यावत् सेवा करें। - यह कार्य अपने को इस भव व परभव में कल्याणकारी होगा, यह कहकर उन्होंने परस्पर यह बात स्वीकार की, पश्चात् वे अपने २ घर आये वहां नहा धोकर, बलि कर्न, कौतुक मंगल और प्रायश्चित कर पवित्र मांगलिक वस्त्र पहिर कर, शरीर में थोड़े किन्तु बहुमूल्य आभरण धारण कर वे अपने २ घर से निकल कर सब एकत्रित हुए, पश्चात् पैदल चलकर वे तुगिका नगरी के मध्य से होकर नगरी के बाहिर आये। पश्चात् वे पुष्पवती चैत्य में आकर स्थविर भगवंतों की. ओर पांच अभिगम से जाने लगे, वह इस प्रकार कि--सचित्त पदार्थ दूर रखे, अचित्त पदार्थ साथ रखे, एक उत्तरासंग किया, दृष्टि पड़ते ही हाथ जोड़े और मन को एकाग्र किया, इस प्रकार वे स्थविर भगवानों के समीप पहुँचे । पश्चात् वे उनको तीन बार प्रदक्षिणा देकर वंदना नमन करने लगे और मानसिक वाचिक तथा कायिक ये तीन प्रकार की पर्युपासना करने लगे। काया से वे हाथ जोडकर, सुनने को उद्यत हो, नमते हुए सन्मुख रह विनय से अंजलि जोड़ सेवा करने लगे, वचन से वे स्थविर भगवंत जो कुछ कहते उसे वे "आप कहते हो वह ऐसा ही है, सत्य है, उसमें कुछ भी शक नहीं, हमें इष्ट है और वह स्वीकृत है," जो आप कहते हो यह कहकर अप्रतिकूलता से सेवन करते।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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