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________________ ४४ व्रतादि ज्ञान के उपर तुगिया नगरी श्रावक का दृष्टांत वाले थे, उनके हाड़ हाड़ में धर्मानुराग व्याप्त हो रहा था, और वे ऐसा मानते कि, यह निग्रन्थ प्रवचन ही सत्य है, शेष . सर्व अनर्थ है। उनके घर के द्वार खुले रहते थे, वे अंतःपुर या परगृह में प्रवेश नहीं करते थे, तथा वे बहुत शीलवत, गुणत्रत, त्याग, पञ्चक्खाण, पौषध-उपवास करते थे तथा चतुर्दशी, अष्टमी, पौर्णिमा व अमावस्या को पूणे पौषध पालते थे-वैसे ही वे श्रमण निग्रंथ को प्राशुक, एषणीय, अशन, पान, खादिम, स्वादिम, तथा वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछनक, औषध, भैषज्य तथा पोछे लिये जा सके ऐसे पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक देते रहकर, अंगीकृत तपकर्म से आत्मा को पवित्र रखते हुए विचरते थे। उस काल में उस समय में पार्श्वनाथ के शिष्य स्थविर साधु, जो कि--जाति, कुल, बल, रूप, विनय, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, लज्जा और लाघव से संपन्न थे, तथा पराक्रमी, तेजस्वी, वर्चस्वी और यशस्वी थे तथा क्रोध मान माया लोभ को जोतने वाले व जितनिद्र, जितेन्द्रिय तथा जितपरिषह थे और जीवन मरण के भय से विमुक्त थे। वे पांचसौ अणगारों सहित अनुक्रम से भ्रमण करते हुए ग्राम ग्राम फिरकर सुखसमाधि से विचरते हुए, जहां तुगिका नगरी थी और जहां पुष्पवती चैत्य था वहां आये और यथायोग्य स्थान खोजकर तप संयम से अपने को भावते हुए विचरने लगे। - तंब उक्त श्रमणोपासकों को इस बात की खबर होते ही, वे हृष्टतुष्ट होकर एक दूसरे को बुलाकर एकत्र हुए, पश्चात् उन्होंने कहा कि-हे देवानुप्रिय बंधुओ ! यहां स्थविर भगवान का आगमन हुआ है।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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