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________________ अतिथी संविभाग व्रत का वर्णन ४१ से नहीं देखा हुआ और प्रमादी होकर आंख से बराबर नहीं देखा हुआ सो दुःप्रत्युपेक्षित है तथा अप्रमार्जित याने रजोहरणादिक से न शोधा हुआ और दुःप्रमार्जित सो उनके द्वारा ठीकठोक न शोधा हुआ सो जानो। कोई पूछे कि- पौषध वाले श्रावक के पास क्या रजोहरण भी होता है ? उसे यह कहना कि- हां, होता है। क्योंकि सामायिक की समाचारी बोलते हुए आवश्यक चूर्णिकार ने कहा है कि" साहूणं सगासाओ रयहरणं निसिज्ज वा मग्गइ, अह घरे-तो से उवग्गहियं रयहरणमत्थि त्ति" "साधुओं के पास से रजोहरण वा निषद्या मांग लेना चाहिये, यदि घर पर सामायिक करे तो उसको औपग्रहिक रजोहरण होता है।" शयन याने शय्या. उसके लिये संस्तारक सो शय्या संस्तारक । पौषध का सम्यक् अपालन तब होता है, जब कि-उपवासी होकर भी मन से आहार की इच्छा करे वा पारणे में अपने लिये उत्तम रसोई करावे, तथा शरीर में केश रोमादिक को शृंगार बुद्धि से ऊंचे नीचे करे अथवा मन से अब्रह्म वा सावध व्यापार का सेवन करे। अब अतिथिसंविभाग रूप चौथा व्रत कहते हैं वहां तिथि-पर्व आदि लौकिक व्यवहार छोड़कर आने वाला सो अतिथि, वह श्रावक के घर भोजन के समय आया साधु जानो क्योंकि
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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