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________________ प्रदेशी नृप चरित्र ____ राजा और रंक, पंडित और जड़, सुरूप और कुरूप, श्रीमन्त । - और दरिद्र, बलवान और दुर्बल, निरोगो और रोगी, सुभग और दुभंग इन सबका मनुष्यत्व समान होते जो अन्तर दीखता है, सो कर्म के कारण से है और कर्म जीव बिना युक्तिमत् नहीं होते। इसलिये हे राजन् ! अपने शरीर में "मैं सुखी हूँ" इत्यादि जो प्रतीति होती है उसके द्वारा जान पड़ता है कि जीव कर्ता, भोक्ता और परलोकगामी सिद्ध होता है । अब अपने शरीर में जैसे ज्ञानपूर्वक प्रत्येक विशिष्ट चेष्टा होती देखने में आती है। वसे ही दूसरे के शरीर में भी बुद्धिमान जनों ने अपनी बुद्धि से अनुमान से उसको सिद्धि कर लेना चाहिये। अब राजा बोला कि-जो परभवगामी जीव हो तो मेरे पिता जीवहिंसा आदि पाप करने में निमग्न रहने वाले थे। वे आपके मत से नरक में गये होंगे। तब वे यहां आकर मुझे क्यों नहीं समझाते कि-हे पुत्र ! यह दुःखदायी पाप मत कर । इसलिये यहाँ जीव परभव को जाता है यह बात किस प्रकार युक्ति की अनी पर लागू पड़ सकती है ? तब बुद्धिबल से वृहस्पति को जीतने वाले गुरु बोले : जैसे किसी महान् अपराध में कोई मनुष्य कैद में डाला जावे, तो फिर वह पहरेदारों के आधीन रहकर अपने स्वजनों को देख भी नहीं सकता। वैसे ही अपने दारुणकर्म को शृंखला से निगडित हुआ नारक जीव, परमाधार्मिक देवों के आधीन रहने से यहां नहीं आ सकता। पुनः राजा बोला कि, मेरी माता मेरी ओर सदैव वत्सल (प्रीतिवान् ) थी। वह सामायिक व पौषध आदि धर्म के कार्यों में
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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