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मध्यस्थता पर
तो देश, काल, स्वभाव तथा सूक्ष्मत्व आदि के कारण दूरस्थ भूमि पर्वत आदि पदार्थों को तू नहीं दीखता होने से उनका अभाव सिद्ध होगा। ___ दूसरा पक्ष भी जीव को तोड़ने में समर्थ नहीं। कारण किसर्व जनों के प्रत्यक्ष तुझे कुछ भी प्रत्यक्ष नहीं है । तथा यह चैतन्य भूतों का स्वभाव है कि कार्य है । स्वभाव तो है ही नहीं, क्योंकिवे स्वयं अचेतन है । वह कार्य भी नहीं क्योंकि उनके वे कार्य हों, तो अलग-अलग का हो कि एकत्रित मिले हुए का हो ? | प्रथम पक्ष में तो अलग-अलग उनमें चैतन्य दीखता ही नहीं, यह दोष आवेगा।
अब पिष्टादिक में से जैसे मद पैदा होता है, वैसे ही भूत एकत्रित होने से उनमें से चैतन्य पैदा होता है । इसी भांति दूसरा पक्ष लिया जाय तो, वह भी ठोक नहीं क्योंकि-जो जिनमें के पृथक-पृथक् में नहीं होता सो उनके एकत्र होते भी उनमें से नहीं होता । रेती के कण में नहीं दीखने वाला तैल क्या उसके अधिक कण एकत्रित करने से पैदा हो सकेंगे ?
पिष्टादिक में से मद पैदा होता है, वहां उसके अंगों में मात्रा से मदशक्ति स्थित ही है, और जो सर्वथा असत् हो उसकी खरशृग की भांति उत्सत्ति हो ही नहीं सकती। तथा मैंने छुया, सुना, सूघा, खाया, स्मरण किया, और देखा, इस प्रकार एक कर्ता वाली प्रतीति भूतात्मवाद में किस प्रकार हो सकती है १ ।
___जो परलोक में जाने वाला जीव न हो, तो कर्म का सम्बन्ध किसको होवे ? और नहीं होवे तो फिर पदार्थों की यह विचित्रता किस प्रकार युक्त मानी जा सकती है ?