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________________ ताराचन्द्र की कथा ३०१ अतिशय रक्षण कर्ता हे अजितनाय ! आप जयवान होओ। तथा भवरूप अग्निदाह का शमन करने वाले हे संभवनाथ ! आप जयवान हो ओ । तथा भव्यों के समूह को आनन्द करने वाले हे अभिनन्दन आप जयवान हो ओ और हे सुमति जिनेश्वर ! मुझे आप सुमति दीजिये । रक्त कान्ति वाले हे पद्मप्रभ प्रभु! आप जयवान हो ओ। जिनकी कीर्ति फैली हुई है ऐसे सुपाश्र्वनाथ प्रभु! आपकी जय हो ओ । चन्द्र के सदृश सुन्दर दांतों से मनोहर लगते हे चन्द्रप्रभु ! आप जयवान हो ओ । तथा हे पुष्पदन्त ! देवाधिदेव ! आप जयवान हो ओ। शुद्ध चारित्र को पालने वाले हे शीतलनाथ प्रभु!, सुरासुरों से नमित चरणवाले हे श्रेयांसनाथ !, संवत्सरी दान देने वाले हे विमलनाथ !, अनन्तज्ञानवान हे अनंत देव ! आप जयवान हो ओ। शुद्ध धर्म का प्रकाश करने वाले हे धर्मनाथ !, जगत् को शांति करने वाले हे शान्तिनाथ !, मोहरूप मल्ल को हराने वाले हे कुथुनाथ !, सकल शल्य नाशक हे अरनाथ !, रागादिक दुश्मनों के नाशक हे मल्लिनाथ !, श्रेष्ठ व्रतों को धरने वाले हे मुनिसुव्रत !, सुरेन्द्रों को नमाने वाले हे नमिनाथ ! और मोक्ष मार्ग को बताने वाले हे पाश्र्वनाथ ! आप जयवान रहो। . इस प्रकार सुरेन्द्रों से नमे हुए जिनेश्वरों को भक्ति के रस से निर्भर हुए मन से स्तवना कर अत्यन्त पुलकायमान शरीर हो, प्रसन्न होकर दशों दिशाओं की ओर देखने लगा। इतने में शीघ्र ही उसने इस प्रकार देखा। चन्द्र समान सुन्दर प्रसरित कांति से दीपिमान, कुछ नमे हुए शरीर वाले, पग के भार से मानो भूमि को दबाते. नीचे मुख से लंबाये हुए, लंबे हाथों के नखों की किरण रूप रज्जुओं द्वारा
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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