SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 309
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०० मध्यस्थता पर वह बाल्यावस्था ही से दीक्षा ग्रहण करने के परिणाम वाला .. होने से घोड़े, हाथी, धन, स्वजन आदि में प्रतिबंध रहित रहता था। वह जलक्रीड़ा आदि से दूर रहता, किसी को कठोर वचन नहीं कहता, न हसता, न विलाप करता और न हाथी, घोड़ों पर चढ़ता था। धूल में साथ खेलने वाले मित्रों के साथ भी यह कदापि नहीं खेलता । और मालालंकार, विलेपन आदि फक्त व्यवहार ही से करता था । इस प्रकार अतिशय विषय विरक्त हुए कुमार को देख कर उसका मन फिराने के लिये राजा ने उसे युवराज पद पर नियुक्त किया। ___ अब उसकी सौतेली मा ने अपने पुत्र को राज्य मिलने में विघ्नभूत मानकर उसको मारने के लिये भोजन में गुपचुप कामण किया । तब उसका शरीर विधुर, असार और दुगंछनीय हो गया । जिससे अत्यन्त शोकातुर होकर कुमार मन में सोचने लगा किसत्पुरुष रोगग्रस्त हों, धनहीन हो वा स्वजन सम्बन्धियों से परिभव पावें तब उन्हें मर जाना चाहिये अथवा देशान्तर में चले जाना चाहिये । अतः नित्य दुर्जनजनों के हाथ की अंगुलियों से दिखाये जाते बिगड़े हुए शरीर वाले मुझ को भी यहां क्षण भर रहना उचित नहीं। यह सोचकर परिजनों को छोड़कर रात्रि को धीरे से घर से निकलकर वह पूर्व दिशा की ओर चल पड़ा। . वह रोगी की भांति धीरे-धीरे चलता हुआ, क्रमशः समेतशिखर के पास के एक नगर में आया । पश्चात् वह आकाश के मस्तक पर पहुँचे हुए अति सुन्दर विस्तार से चारों ओर फते हुए सम्मेतशिखर पर्वत पर धीरे-धीरे चढ़ा। वहां वह हाथ पांव धो, तालाब में से उत्तम कमल लेकर अजितनाथ आदि भगवानों को पूजकर भक्तिपूर्वक उनकी इस भांति स्तुति करने लगा।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy