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________________ २२ तीसरा व्रत का अतिचार में लगाना सो तस्कर प्रयोग | यहां भी भंग की सापेक्षता तथा निरपेक्षता से अतिचार की भावना कर लेना चाहिये । त्रिरुद्ध याने अपने देश के स्वामी का दुश्मन उसका राज्य याने सैन्य वा देश सो विरुद्धराज्य उसमें अपने स्वामी का निषेध वचन उल्लंघन करके प्रवेश करना सो विरुद्धराज्यातिक्रम, यहां भी पर सैन्य प्रवेश सो स्वस्वामिका अननुज्ञात है, जिससे वह अदत्तादान ही माना जाता है, क्योंकि अदत्तादान का लक्षण इस प्रकार है कि स्वामी, जीव, तीर्थंकर और गुरु उनने जो न दिया हो सो अदत्त और उसकी जो विरति सो अदत्तादान विरति । व विरुद्ध राज्य में जाने वाले को चोरी का दंड किया जाता हैं, उससे वह अदत्तादान होने से भंग ही है, तथापि यह तो मैं व्यापार ही करता हूँ चोरी नहीं करता, ऐसी भावना होने से वह व्रत निरपेक्ष नहीं माना जाता वैसे ही लोक में यह चोर है ऐसा नहीं कहा जाने से इसे अतिचार जानना चाहिये । कूट तौल व कूट मापं याने व्यवस्था से न्यूनाधिक तौलमाप का करना सो कूटतुला कूटमान करण. उसके समान याने उक्त कुकुम आदि के समान कुसुम्भादि डालकर जो व्यापार करना सो तत्प्रतिरूप व्यवहार अथवा उसके समान याने वास्तविक कपूर के समान बनावटी कपूर आदि जो जो व्यापार करना सो तत्प्रतिरूपव्यवहार है। ये दोनों काम यद्यपि ठंगाई से पर धन लेने के रूप से व्रत भंग हैं, तथापि सैंध लगाना ही चोरी है व यह तो वणिक-कला
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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