SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीसरा व्रत का स्वरूप, भेद और अतिचार 93 २१ वहां चोरी का कारण माना जाय ऐसा ईंधन, घास वा धान्य आदि स्थूल -- न कि कान कुचलने की सलाई- बिना दिया हुआ लेना - उससे विरमण सो स्थूलादत्तादान विरमण । यह तीन प्रकार का है-- सचित्त संबंधी अचित सम्बंधी और मिश्र संबंधी | यहां भी पांच अतिचार वर्जनीय है यथा- स्तेनाहुत, तस्कर प्रयोग, विरुद्धराज्यगमन, कूटतुला कूटमान करण और तत्प्रतिरूपव्यवहार । वहां स्तेन याने चोर उनको आहृत याने लाई हुई कुंकुम, केशर आदि वस्तु सो स्तेनाहृत ऐसी वस्तु को लोभ के दोषवश काण से याने कम कीमत में मोल लेने से चोर कहलाता है । चौरचौरापको मन्त्री भेदज्ञः काणकक्रयी । अन्नदः स्थानद श्रव चौरः सप्तविधः स्मृतः ॥ कहा भी है कि: -- चोर, चोरीकराने वाला, भेदज्ञ, काणक्रयी, अन्न देनेवाला, स्थान देने वाला इस भांति सात प्रकार से चोर कहा हुआ है । अतः इस प्रकार चोरी करने से व्रत भंग है और मैं व्यापार ही करता हूँ - चोरी नहीं करता ऐसा अध्यवसाय होने से व्रत निरपेक्ष नहीं गिना जाता है उससे अभंग है, अतः अतिचार गिना जाता है । तस्कर याने चोर उनको उत्साह देना सो तस्कर प्रयोग यथा"तुम अभी निकम्मे क्यों बैठे हो ? जो खाने को नहीं हो तो मैं दू' तुम्हारे लूटे हुए माल को कोई बेचने वाला न हो तो मैं बेच दूमा, अतः चोरी करने को जाओ" ऐसा कहकर चोरों को चोरी
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy