SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९० दानादि चतुर्विध धर्म करने पर शील दो प्रकार का है:- देश से और सर्व से । देश से शील सो गृहस्थ को सम्यक्त्व के साथ बारह-त्रत जानो। और साधु जो निरतिचारपन से यावज्जीवन पर्यन्त विश्राम लिये बिना अठारह हजार शील के अंग धारण करते हैं सो सर्व-शोल है। लघुकर्मी और भारी सत्ववान जीव विषम आपदाओं में पड़े हुए भी मन, वचन और काया से सीता के समान निर्मल शील पालते हैं। (अब तप की महिमा कहते हैं) असंख्यात भव में उपार्जित कर्म के मर्मरूप भारी घाम को हरने के लिये तप, पवन समान है। अतः निर्मलशील पालने वाले ने भी वह यथाशक्ति करना चाहिये। तप दो प्रकार का है :-अभ्यंतर और बाह्य । इन प्रत्येक के प्रायश्चित आदि और अनशन आदि छः छः प्रकार है । नरक के जीव हजारों वर्षों तक जितना कर्म नहीं खपा सकते, उतना कर्म उपवास करने वाला शुभभावी जीव खपा सकता है। तीन तपइचरण करने वाले सिंह समान श्रमण विष्णुकुमार के समान तीर्थ की उन्नति करके कर्म रहित होकर परमपद पाये हैं। ___ अतः तप करने वाले साधुओं की सदैव भक्ति करना और कर्म को क्षय करने वाला तप स्वतःभी करते रहना चाहिये। शील पालो, दान दो, निर्मल तप करो किन्तु भाव के बिना वे सब गन्ने के फूल समान निष्फल है। शुभभाव की वृद्धि के हेतु संसार समुद्र तारने को नौका समान अनित्यादिक बारह भावनाएँ नित्य करना चाहिये। तर्क रहित विद्या, लक्षणहीन पंडित और भाव रहित धर्म इन तीनों की लोक में हंसी होती है।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy