SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८८ दानादि चतुर्विध धर्म करने पर इस प्रकार ज्ञान निर्वाण का कारण और कुगति का कारण है । अतः श्रेष्ठ मुनि होते भी ज्ञान रहित हो तो कभी भी माक्ष नहीं पावे । ज्ञानी संविग्नपाक्षिक होते भी जैसा दृढ़ सम्यक्त्व धारण कर सकता है वेसा ज्ञानरहित तीव्र तप चारित्रवान् भी धारण नहीं कर सकता। __जैनी दीक्षा पाकर भी पारमार्थ को न जानते हुए वारंवार संसार में भटकता है सो ज्ञानावरण ही का दोष है। ज्ञानरहित होकर चारित्र में उय त हो तो भी वह निर्वाण न पाकर अंधे के समान दौड़ता हुआ संसार रूप कुए में पड़ता है। संवेग-परायण और शांत होते भी अज्ञानी हो, वह जिन-भाषेत यतिधर्म और श्रावक-धर्म को विधिपूर्वक केसे आराधन कर सकते हैं। जो अखिल विश्व को हाथ में रहे हुए मोती की भांति देख . सकते हैं, वैसे ही ग्रह, चन्द्र, सूर्य और तारों के आयुष्य का मान भी जान सकते हैं । तो मनुष्य जन्म तो सब का समान है, तो भी कोई-कोई पुण्यशाली जगत् में यह सब जान सकते हैं। यह ज्ञानदान ही का प्रभाव जानो । ज्ञान देता हुआ जोव इस जगत् में जिनशासन का उद्वार करता है । वेसा पुरुष श्री पुडरीक गणधर के सदश अतुल परम पद पाता है । इसलिये सदैव ज्ञान देना, सुज्ञानी मुनियों का अनुसरण करना और कुश नेच्छु पुरुषों ने नित्य ज्ञान की भक्ति करना चाहिये। दूसरा अभयदान है । वह सकल जीवों को अभय देने से होता है । अभय ही धर्म का मूल है और दया ही से धर्म है, यह प्रसिद्ध बात है। यहाँ सर्व जीवों को अकेला अभयदान देकर ही वस्रायद्ध के समान क्रमशः जरा मरण टाल कर जीव सिद्ध होते हैं। यह जानकर भयातुर अशरण प्राणियों को भव्य जनों ने यह स्वाधीन अभयदान देना चाहिये ।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy