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________________ चंद्रोदर नृप चरित्र २८७ भवस्थ और अभवस्थ । भवस्थ केवलज्ञान जघन्य से अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देश-कम पूर्व कोटी होता है। अभवस्थ केवलज्ञान सादि अपर्यवसित है। सब ज्ञानों में श्रु तज्ञान ही उत्तम है क्योंकि वह दीपक के. समान स्वपरप्रकाशक है और अन्य ज्ञान मूक हैं। केवलज्ञान भी जो बोलता है वह वचनरूप होने से अतज्ञान है । और मूक केवलो जानता हुआ भी बोल सकता नहीं। अतः ज्ञान, मोहरूप महा अंधकार की लहरों को संहार करने के लिये सूर्योदय समान है। दीठ, अदीठ इष्ट घटना के संकल्प में कल्पवृक्ष समान है । दुर्जय कर्मरूप हाथियों की घटा को तोड़ने में सिंह समान है और जीव अजीव रूप वस्तुएं देखने के लिये लोचन समान है। ज्ञान से पुण्य पाप तथा उसके कारण जानकर जीव पुण्य में प्रवृत्त होता है और पाप से निवृत्त होता है । पुण्य में प्रवृत्त होने से स्वर्ग और मोक्ष सुख प्राप्त होता है और पाप से निवृत्त होने से नरक तियंच के दुःख से मुक्ति होती है। जो अपूर्व (नया) सीखता है वह दूसरे भव में तीर्थकरत्व पाता है, तो फिर जो दूसरों को सम्यक् श्रुत सिखाता हो, उसका क्या कहता ? जो एक दिन में एक पद सीखा जा सकता हो, अथवा पन्द्रह दिन में आधा इलोक सीखा जाता हो, तो भी ज्ञान सीखने की इच्छा हो तो उद्योग न त्यागना । अज्ञानी प्राणी भी माषतुष के समान ज्ञान में उद्यम करता हुआ, शीघ्र ही केवल पाता है।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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