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________________ वरुण का दृष्टांत २७३ पाक्षिक प्रतिक्रमण विधिः मुहपत्ति प्रतिलेखन कर, वंदना कर संबुद्धा क्षामण कर, आलोचना कर, वंदना कर प्रत्येक क्षामण दे, वन्दनासूत्र बोल कर बाद अमुट्ठिओ खमाकर, कायोत्सर्ग कर, मुहपत्ति प्रतिलेखन कर, वन्दना कर अन्तिम-समाप्त क्षामण कर चार छोभ वंदना करना । चातुर्मासिक और सौंवत्सरिक प्रतिक्रमण की विधि पाक्षिक प्रतिक्रमण के समान ही है । केवल कायोत्सर्ग में विशेषता है यथा: देवसिक प्रतिक्रमण में चार लोगस्स, रात्रिक प्रतिक्रमण में दो लोगस्स, पाक्षिक प्रतिक्रमण में बारह लोगस्स, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में बीस लोगस्स और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में एक नवकार सहित चालीस लोगस्स का काउस्सग्ग किया जाता है । सायं संध्या के समय सौ. सुबह को पचास पक्खी मैं तीन सौ, चौमासी में पांच सौ और संवत्सरी में एक हजार आठ श्वासोश्वास के प्रमाण से कायोत्सर्ग किया जाता है । वरुण का वृत्तान्त इस प्रकार है: condens उत्तम चन्दन के वृक्ष जैसे भोगी जन कलित (सर्प युक्त) और सन्ताप (घाम) नाशक होते हैं, वैसे जहां के महल भोगीजन कलित और संताप के नाशक हैं, ऐसा भोगपुर नामक इन्द्रपुर समान नगर था। वहां सर्व नागरिकों से अधिक धनाढ्य गम, संगम, शुभागम में वर्णित विधि वाले निर्मल मार्ग में चलने वाला वरुण नामक महान् इभ्य था । उसकी अत्यन्त मनोहर श्रीकान्ता नामक
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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