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________________ गुरुवंदन की विधि २६३ दो अवनत, एक यथाजात, बारह आवत, चार बार शिरः स्पर्श, तीन गुप्ति, दो प्रवेश, और एक निष्क्रमण, इस प्रकार पचीस आवश्यक हैं। इच्छा, अनुज्ञापना, अव्याबाध यात्रा, यापना और अपराध, क्षामणा ये छः स्थान हैं। छदेण, अणुजाणामि, तहति, तुम्भंपि वट्टए, एवं (अर्थात् पूर्व का वाक्य दो बार बोला जाता है.) अहमवि खामेमि तुमं, इस प्रकार छः वंदनीय गुरु के वचन हैं। .. विनयोपचार सम्पन्न किया जाय, मान टले, गुरुजन की पूजा हो, तीथंकर की आज्ञा का पालन हो, श्रु त धर्म की आराधना हो और क्रिया का पालन हो, इस प्रकार छः गुण हैं। ___आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, और रत्नाधिक इन पांच को निर्जरा के हेतु वंदन करना । पाव स्थ. अवसन्न, कुशील, संसक्त, और यथाछंद ये पांच जैनमत में अवंदनीय कहे गये हैं। पांच वंदन का प्रतिषेध ये हैं-गुरु कामकाज में रुके हों, पराङ्मुख बैठे हों, सोये हों, आहार करते हों वा निहार करते हों तब उनको वंदन नहीं करना चाहिये। देवेन्द्र, राजा, गृहपति, सागारि, और साधर्मि इन पांच के पांच अवग्रह हैं । उसमें से यहां गुरु का अवग्रह है वह चारों ओर उनके शरीर के प्रमाण से है । वंदनकर्म, चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म और विनय कर्म ये पांच वंदन के पर्याय नाम हैं। शीतलाचार्य, क्षुल्लक, कृष्ण, सेवक और पालक ये पांच वंदन में दृष्टान्त हैं।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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