SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४४ सम्यक्त्व पर 'सम्यक्त्व होता है, अथवा द्रव्य-भाव आदि भेदों से अनेक प्रकार - का होता है। जीवादि नौ पदार्थों को जो जानता है उसे सम्यक्त्व होता है और उनको न जानते भी भाव से श्रद्धा रखे तो उसे भी सम्यक्त्व होता है। मिथ्यात्व दो प्रकार का है-लौकिक और लोकोत्तर । उन दोनों के दो प्रकार हैं, देवगत और गुरुगत । चारों प्रकार के मिथ्यात्व का जो त्रिविध त्रिविध त्याग करे, उस जीव को अकलंक सम्यक्त्व प्रगट होता है । इस प्रकार सकल गुणसहित और सकल दोषरहित सम्यक्त्व को भाग्यशाली जन कष्ट आते भी राजा की आज्ञा के समान दृढ़ता से धारण करते हैं। जो जीव इस सम्यक्त्व को अंतर्मुहूर्त मात्र स्पर्श करते हैं, उनको अपार्द्ध पुद्गल परावर्त संसार ( बाकी ) रहता है । जिसके मन रूपी आकाशमार्ग में दर्शन रूप दीप्तिमान सूर्य प्रकाश करता है। उसके आगे कुमतिरूप तारागण जरा भी प्रकाश नहीं कर सकते । सम्यक्त्व शुद्ध हो तो अविरत होते भो तीर्थकर नाम कर्म बांधता है, इसके लिये श्रेष्ठ भाग्यशाली यादवकुलप्रभु (श्रीकृष्ण ) और श्रेणिक आदि दृष्टांत रूप हैं । मिथ्यारूप प्रबल अग्नि को तोड़ने के लिये पानी समान इस सम्यक्त्व को जो धारण करते हैं, उनके हस्त कमल में निश्चय मोक्ष सुख को श्री आ लौटेगी। इस भांति सुन कर अमरदत्त ने सम्यक्त्व मूल गृहिधर्म अंगीकृत किया । तब अतिशय करुणावन्त गुरु ने उसे इस प्रकार शिक्षा दो । हे भद्र ! भाग्य संयोग से किसी प्रकार यह निर्मल सम्यक्त्व प्राप्त कर लेने के अनंतर सड़सठ प्रकार से इसका पालन करना चाहिये।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy