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________________ अमरदत्त का दृष्टांत है पर अंत नहीं ऐसा माना गया है। अब क्षयोपशमसम्यक्त्व, जो कि सर्वकाल में होता है, सो सुन । ____ जो उदीर्ण मिथ्यात्व होता है, वह क्षीण होता है, और अनुदीर्ण होता है सो उपशान्त करने में आता है । इस प्रकार मिश्रीभाव के परिणाम से वेदाता हो सो क्षयोपशम है । वहां जो पूर्व में आयुष्य न बांधा हो तो वह वैमानिक के सिवाय दूसरा आयुष्य नहीं बांधता और यह सम्यक्त्व सदैव चारों गति में होता है। ___ अब औपशमिक सम्यक्त्व को भव्यजीव इस भांति पाते हैं:-अव्यवहार राशि में अनंत पुद्गलपरावर्त भटक करभवितव्यता के योग से तथा कर्म की परिणतिवश व्यवहार-राशि में आकर जीव चिरकाल एकेन्द्रियादिक में रहता है। तदनन्तर चिरकाल तक त्रसों में भ्रमण कर के प्रायः अंतिम पुद्गलपरावर्त में संज्ञिपंचेन्द्रिय पर्याप्त रीति से बढ़कर परिणाम में सत्तर कोटाकोटि सागरोपम मोहनीय की स्थिति, बीस कोटाकोटि सागरोपम नाम गोत्र की और शेष चार की तीस कोटाकोटि सागरोपम तथा तैतीस सागरोपम आयुष्य की स्थिति इस प्रकार उत्कृष्टी कर्म स्थिति है। उसमें से पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम केवल एक कोटाकोटि सागरोपम स्थिति छोड़ कर शेष सब का क्षय कर डालता है। पर्वत की नदी के पत्थर के समान जीव अनाभोग से हुए यथाप्रवृत्राकरण से ग्रथि के समीप आता है । प्रथि याने ककेश और हद बैठी हुई गूढ़ गांठ के समान जीव का कर्मजनित अति दुर्भेद्य सख्त राग द्वष का परिणाम जानो। .. इस स्थान में अभव्य भी अनंत वार आते हैं और द्रव्यश्र त पाते हैं, किन्तु सम्यक् श्रुत नहीं पाते और पुनः वे उत्कृष्ट स्थिति बांधते हैं । किन्तु भव्यजीव अपूर्वकरण से उक्त प्रथि को भेद
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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