SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्मल दर्शन पर एक विध सो तस्वरुचि है, निसर्ग से और उपदेश से वह दो प्रकार का है, क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक, इस भांति तीन प्रकार का है। वहां मिध्यात्व के क्षय से क्षपकश्रेणी में क्षायिकसम्यक्त्व होता है। उक्त क्षपकश्रेणी चौथे, पांचवें, छठे वा सातवें गुणस्थान से शुरु को जाती है। वहां अंतर्मुहूर्त में समकाल से अनंतानुबंधि कषायों का क्षय करे । अत्र जो पूर्व में द्धा हो तो वहीं रुका रहे । वहां मिध्यात्व का उदय हो तो पुनः अनन्तानुबंध बांधे । इस प्रकार अनन्तानुबंधियों को उत्कृष्ट से आठ वक्त उद्बलना होती है। २४० यदि कोई बद्धा हो कर अखंडश्रेणी करने वाला हो तो शुभ भाव से मिध्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्व मोह का क्षय करता है । वहां जो अनन्तानुबंध का क्षय होने पर बद्धायु मरे तो देवत्व में उत्पन्न होवे, और मिथ्यात्व क्षय होने पर बीज का नाश होने से पुनः अनन्तानुबंध न बांधे 1 इस प्रकार सातों प्रकृतियों का क्षय होने पर भी जो न मरे, तो चारों गति में जावे और वहां तीसरे वा चौथे भव में सिद्ध हो जाता है। सुर व नर का भत्र बीच में आने पर तीसरे भव और गलिये का भव बीच में आने पर चौथे भव में क्षायिक सम्यग् दृष्टि मोक्ष को जाता है, किन्तु वह सम्यक्त्व जिन भगवान के समय के मनुष्यों को होता है । अबद्धा हो तो वह वहां रह कर नपुंसक वेद, स्त्री वेद हाश्यादि पटक, पुरुष वेद, और संज्वलन क्रोधादिक तथा दर्शनावरण, ज्ञानावरण, अन्तराय और मोह का क्षय होने पर वह नियमात् घनघति कर्म से मुक्त हो कर केवलज्ञान पाता है । इस प्रकार क्षायिक सम्यक्त्व सादि और अपर्यवसित अर्थात् उसकी आदि
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy