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________________ शिवकुमार का दृष्टांत २३५ त्यागा है ? कारण कि-देह पुद्गलमय है, वह आहार बिना कायम नहीं रह सकती और देह न हो तो चारित्र कैसे रहे? और चारित्र न होय तो सिद्धि कहां से होय ? निरवद्य आहार शरीर का आधार होने से मुनिजन भी ग्रहण करते हैं, अतः कमै निर्जरा के हेतु हे कुमार! तू भी ग्रहण कर । शिवकुमार बोला कि-मुझे गृहवास में निरवद्य आहार कैसे प्राप्त हो ? इसलिये हे इभ्यपुत्र! नहीं खाना ही उत्तम है । इभ्यकुमार बोला कि-आज से तू मेरा सुगुरु है और मैं तेरा शिष्य हूँ, अतएव जो तू चाहेगा वही मैं निरक्य रूप से लादूगा। तब शिवार्थी शिवकुमार बोला कि-जो ऐसा ही है तो मैं छठु तप करके अशुभ नाशक आयंबिल का पारणा करूगा। तब हदधर्मकुमार अतिदृढ़ धर्मो शिवकुमार का निरवद्य अशनादिक से वैयावृत्य करने लगा। अब गृहवास को पाश समान मानता हुआ तथा बंधुजन को बंधन समान गिनता हुआ शिवकुमार हर्ष से बारह वर्ष पयंत कठिन तप करके ब्रह्मदेव-लोक में विद्य न्माली नामक तेजस्वी देवता हुआ। वहां दश सागरोपम का आयुष्य भोग कर, वहां से व्यवन कर राजगृह नगर में ऋषभदत्त श्रेष्टि की धारणी भार्या के गर्भ में जम्बू नामक पुत्र हुआ। वह जन्मा तब जम्बू द्वीप के अधिष्ठायक देव को भी अत्यन्त हर्ष हुआ। उस महात्मा ने निन्यानवे कोटि धन और आठ उत्तम रुपवती स्त्रियां छोड़ कर माता पिता तथा प्रभव आदि अनेक जनों को
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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