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गृहवास की पाशता पर
हे पुत्र ! शिवकुमार के दीक्षा लेने को तैयार होने पर हमारे रोकने से उसने मौन धारण किया है और अब भोजन भी करना नहीं चाहता। इसलिये तू किसी प्रकार इसको खिला । ऐसा करने से तूने हमको मानो प्राणदान दिया । ऐसा मन में सोचकर तुझे शिवकुमार के पास आने जाने की बिलकुल छुट्टी देते हैं, इसलिये तू निःशंक हो कर वहां जा। ___ तब दृढ़कुमार राजा को प्रणाम करके बोला कि-हे स्वामिन् ! जो उचित होगा, वही करूगा । यह कह कर वह शिवकुमार के पास गया । निसीहि करके ईरियावही की और द्वादशवत बदन कर प्रमार्जन करके अणुजाणह में' ऐसा बोलकर बैठ गया तब शिवकुमार ने विचार किया कि-यह श्रेष्टिकुमार अगारी मेरे सन्मुख साधू को करने योग्य विनय करके खड़ा हुआ है । अतः इसको पूछू तो सही कि-वह ऐसा क्यों करता है ? जिससे उसने कहा कि-हे श्रेष्टिकुमार ! जो मैंने सागरदत्त गुरु के पास साधुओं को किया जाता हुआ विनय देखा, वही तू ने मेरे सन्मुख किया । अतः बोल, क्या यह अनुचित नहीं ?
दृढधर्म बोला-हे कुमार ! अहंत के प्रवचन में विनय तो साधु और श्रावकों का समान ही कहा गया है। वैसे ही जिनवचन सत्य है । ऐसी श्रद्धा भी समान ही है और व्रत तथा आगम में विशेषता है, वह यह कि-साधु महाव्रत धारी होते हैं तो श्रावकों को अणुव्रत होते हैं । साधु समस्त श्रुतसागर के पारंगामी होते हैं, तो श्रावक जीवाजीव तथा बंध मोक्ष के विधान को उपयुक्त आगम जानते हैं । उसी भांति बारह प्रकार के तप में थोड़ी विशेषता है। ___ अतः हे कुमार! तू समभाव वाला होने से अवश्य वन्दना करने योग्य है । किन्तु मैं यह पूछता हूँ कि-तू ने भोजन क्यों