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________________ संसाररूप चौथा भेद का स्वरूप को चला गया और विद्याधर भी उसे नमन करके अपने स्थान को गये । अब सर्वार्थ मामा, मित्रवती तथा वसंतसेना आदि सब उससे मिले और उसकी निर्मल कोर्ति होने लगी । अब उसने अर्थ को अनर्थ का घर जान कर विशुद्ध मन से परिग्रह परिमाण सहित गृहि धर्म अंगीकृत किया । पश्चात् यथोचित रीति से अपना सम्पूर्ण द्रव्य सात क्षेत्रों में व्यय करके, मोह व मत्सर से रहित हो चारुदत्त सुगति को गया । २१६ इस प्रकार चारुदत्त का वृत्तान्त सुनकर हे शिष्टजनों ! तुम सदा संतोष की पुष्टि करो, परन्तु अनर्थ और क्लेश युक्त धन में, धर्म में क्षोभ कराने वाले लोभ को मत धारण करो । इस प्रकार चारुदत्त का दृष्टांत पूर्ण हुआ । यह सत्रह भेदों में का तीसरा भेद कहा । अब संसाररूप चौथे भेद का वर्णन करते हैं । दुहरूवं दुक्ख फलं दुहारणुबंधि विडंबणारुवं । संसारमसारं जा - णिऊण न रई तर्हि कुणइ ।। ६३ ॥ मूल का अर्थ-संसार को दुःखरूप, दुःखफल, दुखानुबंधि, विटंबनारूप और असार जानकर उसमें रति न करें । टीका का अर्थ - यहां संसार में रति न करे, यह मुख्य बात है । संसार कैसा है सो कहते हैं - वह दुःखरूप अर्थात् जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक आदि से भरा हुआ होने से दुःखमय है, तथा दुःखफल याने जन्मान्तर में नरकादि दुःख देने वाला है, तथा बारंबार दुःख के संधान होने से दुखानुबंधि
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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