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________________ चारुदत्त का दृष्टांत २१५ हे पुत्रों ! यह चारुदत्त है। इतने में वहां एक महा ऋद्धिवान देवता आया । उसने प्रथम चारुदत्त को प्रणाम किया व पश्चात् मुनि को प्रणाम किया । तब विद्याधरों के इसका कारण पूछने पर उसने कहा कि - ___ काशी में सुलसा और सुभद्रा नाम की दो बहिनें थी, वे प्रब्राजिकाए होकर वेदाङ्ग को पारगामिनी हो गई थीं । उन्होंने कई वादिओं को जीता था । अब याज्ञवल्क्य नामक परिब्राजक ने सुलसा को जीतकर अपनी दासी बनाई। उसके साथ विशेष संसर्ग रहने से उसको गर्भ रह कर पुत्र उत्सन्न हुआ। तब लोकनिंदा से डर कर वे उस बालक को पीपल के नीचे रख कर भाग गये। पश्चात् सुभद्रा ने उस बालक के मुह में पोप पड़ी हुई देखी। उसने उसका नाम पिष्पलाद रख कर उसको पाला । वह विद्या सीख कर पितृमेघ, मातृमेव आदि यज्ञ करके उनको मारने लगा। मैं उसका बलि नामक शिष्य था। सो यज्ञों में बहुत पशुवध आदि करके मर कर नरक को गया। वहां से पांच बार पशु हुआ और पांचों बार मुझे ब्राह्मणों ने यज्ञ में मारा। छठे भव में इस चारुदत्त ने मुझे नवकार दिया, जिससे सौधर्मदेवलोक में मैं उत्पन्न हुआ। इसीसे मैंने पहिले इसको प्रणाम किया है। ___यह कह चारुदत्त को प्रणाम कर वह देवता अपने स्थान को गया। पश्चात् वे विद्याधर उसे शिवमंदिर नगर में ले गये। वहां उन्होंने बड़े गौरव से उसका आदर सत्कार किया । तदन्तर उनके साथ वह अपनो नगरी को ओर चला । इतने में वह देवता आ पहुँचा । उसने एक विमान तैयार किया। उस पर श्रेष्ठ कुमार आरुढ़ होकर शीघ्र ही चंपा में आया । पश्चात् वह देवता उसे कई करोड़ सुवर्ण मुद्राए ठेकर स्वर्ग
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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