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________________ २०४ इन्द्रिय संयम पर तब जयवर्य राजा ने कुमार का उत्तम रूप देखकर शीलवती उसे दी व उसका विवाह करना प्रारम्भ किया । इतने में शान्तजनों को अनुपशान्त (विकार युक्त) करने वाला वसंत-ऋतु आने पर राजा अपने परिजन सहित उद्यान में गया । .. वहां वह स्नान क्रीड़ा करने लगा। इतने में किसी विद्याधर ने कुमार के वेष से शीलवती को हरण की । तब उस कपट को न जानकर शीलवती ने उसको कहा कि हे सुभग ! हास्य मत कर, मैं सखियों से लज्जित होती हूँ, अतः मुझे शीघ्र छोड़ दे। इतने में परिजनों के साथ में डरती हुई सखियों ने चिल्लाया कि हे देव ! देखो, देखो !! शीलवती को कोई आकाश में लिये जाता यह सुन राजा अत्यन्त रोष से लाल आंखें कर, हाथ में तलवार ले, क्र द्ध हो शीघ्र इधर उधर दौड़ने लगा। उसी भांति महान योद्धा सुभट भी हथियार ले ले कर भूमि को प्रहार करते हुए लड़ने के लिये तैयार होकर उठे। . तथापि वह शूर राजा भूचर था अतः खेचर (आकाश-गामी) का क्या कर सकता था ? अथवा सत्य है कि, पुत्रियों के कारण महान पुरुष भी परिभव पाते हैं। राजा विचार करने लगा कि -मैं शस्त्र, अस्त्र और नीति में तत्पर रहता हूं, तो भी इस जलक्रीड़ा में विव्हल हो गया जिससे यह परिभव हुआ। व स्तव में कन्या का पिता होना यह एक कष्ट ही है । क्योंकि कन्या का जन्म होते ही भारी चिन्ता और शोक उत्पन्न होते हैं, और उसे किसे देना यह महान विकल्प हो जाता है । विवाह कर देने के अनन्तर भी सुख से रहेगी या नहीं, यह विचार
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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