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________________ व्रत के भंग .. इनकी स्थापना इस प्रकार है: इन छ भंगों ही में त्रिविध त्रिविध, द्विविध त्रिविध और त्रिविध एक विध रूप अनुमति प्रत्याख्यान के तीन भंगों सहित नव भंग होते हैं। . .. वहाँ यह गाथा है:विनि तिया तिनि दुया-तिनिक्किका यहति जोगेसु । तिदुइक्क तिदुइक्क-तिदुइक्क चेव करणाई ॥१॥ . . योग के तीन त्रिक, तीन द्विक और तीन ऐकिक होते हैं और करण में तीन दो एक, तीन दो एक और तीन दो एक आते हैं: (स्थापना उपरोक्तानुसार जानो) - छ:भंग ही सर्व उत्तर भंग सहित बोले तो इकत्रीस भंग होते हैं (स्थापना ऊपर के अनुसार) तथा यही भंग नव भंग की अपेक्षा से ४९ होते हैं । वहां यह गाथा है। पढमे भंगे एगो--लब्भइ सेसेसु तिय तिय तियं ति । नव नव वित्रि य नव नव-सव्वे भंगा इगुणवन्ना ॥ पहिले भंग में एक लाभे, दूसरे तीसरे चौथे में तीन तीन तीन लाभे, पांचवें छठे में नव नव लाभे, सातवें में तीन लाभे और आठवें नवमें में नव नव लाभे । सब मिलकर ४९ होते हैं। इन ४९ भंगों ही को तीन काल से गुणा करते १४७ होते हैं।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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