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________________ १७२ सूत्रकुशल का स्वरूप से कुशल भी छः प्रकार के है, वही कहते हैं-सूत्र में जो कुशलता पाया हुआ हो, वैसे ही अर्थ याने सूत्र का अभिप्राय उसमें तथा उसी प्रकार उत्सर्ग याने सामान्य कथन में, अपवाद याने विशेष कथन में, भाव याने विधी सहित धर्मानुष्ठान करने में, व्यवहार याने गीतार्थ पुरुषों के आचरण में, इन सब में जो सद्गुरु के उपदेश से कुशलता पाया हो, वह छ: प्रकार से प्रवचन-कुशल कहा जाता है । यह गाथा का अक्षरार्थ है। __ अब इस छठे लक्षण ही का भावार्थ का वर्णन करने के हेतु गाथा के प्रथम पद से प्रथम भेद कहते हैं उचियमहिजड़ सुतं, उचित सूत्र सीखना. उचित याने श्रावकपन के योग्य, सूत्र याने दशकालिक सूत्र के प्रवचन मात्र नामक अध्ययन से लेकर पद्जीवानका अध्ययन पर्यन्त का सूत्र सीखे। कहा भी है कि प्रवचन मातृ अध्ययन से लेकर षट्जीवनिका अध्ययन तक का सूत्र और अर्थ से श्रावक को भी ग्रहण-शिक्षा रूप है। सूत्रशब्द उपलक्षण रूप से है, उससे पञ्चसंग्रह-कर्मप्रकृति आदि अन्य शास्त्रों को भी गुरु के प्रसाद से अपनी बुद्धि के अनुसार श्रावक, जिनदास श्रावक के समान पढ़े। उसकी कथा इस प्रकार है इन्द्र की सभा जैसे अच्छर सौधयुक्त (अप्सराओं के समूह से युक्त) और अनिमिष कलित ( देवता सहित) है, वैसे ही अच्छर सौध युक्त (स्वच्छ पानी से भरी हुई) और अनिमिष कलित (मत्स्यादि से भरपूर) यमुना नदी से घिरी हुई मथुरा नामक नगरी थी। वहां उचित सूत्र के अध्ययन रूप रज्जु से मन रूप घोड़े को वश में रखने वाला जिनदास नामक श्रावक था और उसकी साधु
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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