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________________ ऋजुव्यवहार नहि रखने में दोष दर्शन वहां आ जाने से वंश का हाल भी ज्ञात हो गया और वह (सुमित्र) स्वपर को सुख का दाता हो दीक्षा ले अनुक्रम से सुगति को पहुँचा | मैत्रीभाव रहित और स्वपर को निरंतर अहितकारी वसुमित्र मरकर नरक में गया और अत्यन्त घोर संसार में भ्रमण करेगा. १५६ इस प्रकार समस्त सत्त्व के मित्र सुमित्र का वृत्तान्त सुनकर हे भव्य जनों ! तुम दुःखलता को नष्ट करने वाली सद् मित्रता में अत्यन्त आदरवान होओ । इस प्रकार सुमित्र की कथा है। इस भांति ऋव्यवहार में सद्भाव मैत्री रूप चौथा भेद कहा. उनको कहने से चारों प्रकार के ऋजुव्यवहार का स्वरूप कहा. अत्र इसके विरुद्ध बर्ताव का दोष बताकर क्या करना सो कहते हैं अन्न भणणाई अोहिबीयं परस्स नियमेण । तत्तो भवपरिवुड्ढी ता होजा उज्जुववहारी ||४८ || मूल का अर्थ - अन्यथा - भाषण आदि करते दूसरों को नियम से अबोध बोज के कारण हो जाते हैं और उससे संसार बढ़ जाता है, अतएव ऋजुव्यवहारी होना चाहिये । टीका का अर्थ - अन्यथा भणन याने यथार्थ - भाषण आदि, शब्द से अवंचक क्रिया, दोषों की उपेक्षा तथा कपट मित्रता लेना चाहिये। ये दोष होवे तो श्रावक दूसरे मिध्यादृष्टि जोव को निश्चयतः अवि का बीज हो जाता है अर्थात् उससे दूसरे धर्म नहीं पा सकते। कारण कि इन दोषों में लोन श्रावक को देखकर वे ऐसा बोलते हैं कि- “ जिन शासन को धिकार हो कि - जहां श्रावकों को ऐसे शिष्ट जनों को निंदनीय मृषा-भाषण आदि कुकर्म "
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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