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________________ १५० ऋजुव्यवहार लक्षण का चौथा भेद का स्वरूप यह सुनकर गंभीर बुद्धिमान भद्र सेठ राजा के पास जाकर . बहुत-सा धन देकर जैसे तैसे पुत्र को छुड़ा लाया, पश्चात् भद्र सेठ ने जाना कि- धन-पुत्र व धन ये दोनों बहुत अपाय वाले हैं, जिससे उन दोनों का त्याग कर दीक्षा ले भद्र सेठ भद्र पद को प्राप्त हुआ। और व्यवहारशुद्धि से रहित, अतिशय लोभी और निर्मल भाव छोड़कर चलने वाला पापी धन-सेठ नरक को गया। इस प्रकार समझदार लोगों ! भद्र सेठ का उत्तम चरित्र सुन• कर उससे भावो अपाय से मुक्त व्यवहार शुद्धि का नित्य आश्रय लो। इस प्रकार भद्र सेठ की कथा है। इस प्रकार ऋजु-व्यवहार में भावि-अपाय-प्रकाशन रूप तीसरा भेद कहा, अब सद्भाव से मित्रता करना रूप चौथा भेद कहते हैं. 'मित्ती भावो य सम्भावो' ति मित्र का भाव वा काम सो मित्रता। उसका भाव याने होना वा सत्ता अर्थात् सद्भाव से सुमित्रवत् निष्कपट मित्रता करे। क्योंकि-मित्रता और कपट-भाव इन दोनों का छाया व धूप के समान विरोध है, क्योंकि कहा है कि जो कपट से मित्रता करना चाहते हैं, पाप से धर्म साधना चाहते हैं दूसरे को दुःखी करके समृद्धि प्राप्त करना चाहते हैं, सुख से विद्या सिखना चाहते हैं और कठोर वाणी से स्त्री को वश में करना चाहते हैं, वे प्रकटतः अपण्डित हैं । यह चौथा ऋजु व्यवहार का भेद है। सुमित्र की कथा इस प्रकार है। सुपुरुषपुर ( अलकापुरी) के समान सुकर (न्यून कर वाले) और वर वस्त्र वाले श्रीपुर नामक नगर में समुद्र जैसे नदीन ( नदी पति) है, वैसा अदीन समुद्रदत्त नामक सेठ था। उसका सुमित्र नामक पुत्र था, वह वास्तावेक मित्रता रखने वाला व महान्
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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