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________________ १२० जयंती श्राविका का दृष्टांत है, करणचि और अनभिनिवेशरुचि तो यथावत् ही हैं और अनिष्ठितोत्साहता सो इच्छावृद्धि ही है अतः इस तरह भी कुछ भी विरोध की आशंका नहीं। जयंती श्राविका की कथा इस प्रकार है। कोर्शबी नामक नगरी थी वहां कोश (पानी निकालने का कोश) तथा बीज इन दो वस्तुओं के बिना ही अंकुरित महान् कीर्तिरूप लता युक्त उदयन नामक राजा था। उसकी माया रहित और सुशीला मृगावती नामक उसकी माता थी और जिन-वचन में रुचि रखने वाली स्वच्छ आशया जयंती नामक पितृष्वषा फूफी थी। वह शास्त्र में श्रमणों को प्रथम शय्यातरी ( स्थान देने वाली) प्रसिद्ध है। अब वहां सिद्धार्थ राजा के पुत्र वीर-स्वामी पधारे । उक्त त्रिभुवननाथ को नमन करने को उत्सुक हो जयन्ती स्वजनपरिजन सहित वहां आई, वह भक्ति में सारे विश्व से अधिक थी। वह शुभरुचि व सुमति जयन्ती वीर-जिन को नमन कर उदयन राजा को आगे करके इस प्रकार प्रभु का उपदेश सुनने लगी- मनुष्य-जन्मादिक झार सामग्री पाकर महान् कर्म रूप पर्वत का भेदन करने के लिये वन समान उत्तम सक्रियारुचि करो। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष. इन नव तत्वों में सदैव रुचि करो। वहां जीव चेतन रूप से एकविध है, बस स्थावर रूप से द्विविध है, स्त्री, पुरुष और नपुसंक रूप से त्रिविध है, देव, नारक, मनुष्य, तियंच रूप से चतुर्विध है, पांच इन्द्रियों से पंचविध और छः काय से षड्-विध है।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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