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________________ शंख का दृष्टांत तब उक्त अभिनिवेश वाले श्रावक शंख को कहने लगे कि-हे शंख ! क्या तुम्हें, ऐसा करना योग्य था कि कल स्वयं तुमको ठहराव किया था कि भोजन करके पौषध करगे। और आज तुमने बिना भोजन किये ही पौषध ले लिया अर्थात् हे देवानुप्रिय ! तुमने हमारी अच्छी हंसी की । तब भगवान उनको कहने लगे कि-तुम शंख की हीलना मत करो क्योंकि-यह प्रियधर्म व दृढ़धर्म होकर भली भांति धर्म जागरिक जागता है। । तब शंख समान मधुर शब्द वाला शंख प्रभु को नमन करके पूछने लगा कि हे भगवन् ! क्रोध के कारण जीव क्या कर्म उपार्जन करता है ? भगवान बोले कि-हे शंख : क्रोधवश जीव सात आठ कर्म बांधता है और संसाररूप वन में भटकता है। यह सुन वे श्रावक भयभीत हो अभिनिवेश त्याग शंख सदृश पवित्र शंख श्रावक को विनय पूर्वक खमाने लगे। __ पश्चात् वे सब निरभिनिवेशी हो, वीर जिन को वंदन करके अपने २ स्थान को आये और वीर प्रभु भी अन्य स्थल में विचरने लगे । अब शंख असंख्य भवों के कमाँ का क्षय करके सौधर्म कल्पान्तर्गत अरुणाभ नामक विमान में चार पल्योपम के आयुष्य वाला देव हुआ। वहां से च्यवन कर वह अभिनिवेश रहित रहकर मुक्ति पावेगा। वैसे ही वे दूसरे श्रावक भी सुगति के भाजन हुए । इस प्रकार अभिनेवश का त्याग कर श्रावस्ती के श्रावकों ने उत्तम फल पाया । अतः हे जनों ! तुम भी इसमें यत्न करो। इस प्रकार शंख का वृत्तान्त है।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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