SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुणवतलक्षण का अनभिनिवेशरूप चौथा भेद का स्वरूप ११५ राजा बोला कि-ये तो इंद्र, चन्द्र तथा नागेन्द्र जिनके चरणों को नमन करते हैं, ऐसे समकाल ही में सकल जीवों के सकल संशयों के हरने वाले, हर व हास्य के समान श्वेत यश परिमल से त्रैलोक्य को सुगन्धित करने वाले, भोग की अपेक्षा से रहित, अति तीव्र तपश्चरण से अर्थसिद्धि प्राप्त करने वाले, सिद्धार्थ राजा के कुल रूप विशाल नभस्तल में सूर्य समान, मान रूप हाथी को दूर भगाने में केशरीसिंह समान वीर जिनेश्वर पधारे हैं। ____ यह सुनकर वह हर्षित हो, श्रेणिक राजा के साथ भगवान के पास आया। प्रभु को नमन कर, हाथ में तलवार धारण कर कहने लगा कि-हे प्रभु! आपकी सेवा करूंगा, तब भगवान बोले कि-हे भद्र ! हमारी सेवा मुखवस्त्रिका और धर्मध्वज . ( रजोहरण ) हाथ में लेकर की जाती है। तब उसने वैसा ही स्वीकृत करके प्रभु से दीक्षा ली और विनयरूप सिद्धरसायन करके कल्याण का भागी हुआ । इस प्रकार अत्यन्त लाभकारी पुष्पसालसुत का उत्तम वृत्तान्त सुनकर हे जनों ! तुम शुद्ध मन से विनय करने में तत्पर होओ। - इस प्रकार पुष्पसालसुत की कथा है । विनय रूप तीसरा भेद कहा, अब अनभिनिवेशरूप चौथा भेद वर्णन करने के लिये शेष आधी गाथा कहते हैं । अभिनिवेसो गीयत्थ-भासियं नन्नहा मुणइ ।। ४५ ।। मूल का अर्थ- अनभिनिवेशी हो, वह गीतार्थ की बात को सत्य करके मानता है । टीका का अर्थ-अनभिनिवेश अर्थात् अभिनिवेश रहित
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy