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________________ ११२ गुणवंत लक्षण का तीसरा भेद विनय का स्वरूप वे बोले कि-हे पिता ! जो तू यही पर हमको कुछ प्राप्तकर दे, तो हम धर्म करते है। तब सेठ बोला कि- हां, तब तो मैं शीघ्र दूंगा। तब वे धन मिलने की लालसा से नंद सेठ के साथ जिनमंदिर आदि में जाते तथा साधुओं को नमन करते थे। पश्चात् वे लोभी होकर कहने लगे कि वह धन कहाँ है ? तब सेठ ने घर का एक कोना खुदवाकर उनको सुवर्ण का कलश बताया। इस प्रकार अंतराय कर्म का क्षय होने से चारों कलशों के प्राप्त होने पर वे पूर्व की भांति ऋद्धि पात्र हो गये व जिनधर्म पर प्रीतिवान् हुए अब उसने स्वजन संबंधियों को गुरु से गृहीधर्म अंगीकृत करवाया और स्वतः मुक्ति सुख देने वाली दीक्षा ग्रहण की। __वह मूल व उत्तर गुण सहित रहकर स्वाध्याय व आवश्यक की क्रिया में तत्पर रहता हुआ दुःखकंद को निर्मूल करके परमपद को प्रार हुआ। इस प्रकार नित्य करण में उद्यत रहने वाला नंद सेठ को दोनों लोकों में प्राप्त हुआ सुख सुनकर सकल दुःख रूप वृक्ष को ( काटने में) कुठार समान, नित्य करण में। हे भव्यअनों ! तुम प्रयत्न करते रहो। इस प्रकार नन्द सेठ की कथा है। गुणवन्तलक्षण का करण रूप दूसरा भेद कहा, अब तीसरा विनय रूप भेद प्रकट करने के हेतु आधी गाथा कहते हैं अब्भुटामाइयं विणयं नियमा पउंजइ गुणीणं । मूल का अर्थ-गुणी जनों की ओर अभ्युत्थान आदि विनय अवश्य करना चाहिये।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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