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________________ नियम करने पर उसने विनय पूर्वक उनके चरणों को नमन किया। तब उन्होंने पूछा कि-हे सेठ ! तेरी ऐसी अवस्था कैसे हुई। __वह बोला कि- हे भगवन् ! आप भी ऐसा कहते हो ? मैं तो यही मांगता हूँ किं- जहां तक मेरे मन में अचित्य चिंतामणी समान धर्म विद्यमान है, तब तक कुछ भी न्यूनता नहीं। तो भी मेरे मूढ़ चित्त स्वजन सम्बन्धी जिनप्रवचन से विरुद्ध और .अनन्तसंसार रूप तर के मूल ऐसे वचन बोला करते हैं, जिससे मुझे बड़ा विषम दुःख होता है। ____ इतने में ब्रह्मशांति यक्ष प्रत्यक्ष होकर बोला कि- मैं तेरे महान भक्ति साहस के गुण से संतुष्ट हुआ हूँ, अतः वर मांग। वह बोला कि- मुझे किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं। यक्ष पुनः बोला कितथापि कुछ तो मांग। तब वह बोला कि- तो मेरे उक्त (पुष्पमाला वाले) आधे रुपये का फल दे। तब यक्ष अवधिज्ञान से देखकर कहने लगा कि-तुझे मैं चाहे जितने लाख द्रव्य दे हुँ तो भी आधे रुपये में उपार्जित पुण्य का मैं पार नहीं पा सकता। यह सुन सेठ विस्मित होकर बोला किहे यक्ष! तू प्रसन्नता से अपने स्थान को जा, मुझे जिन धर्म के प्रभाव से कभी भी कुछ कमी नहीं हुई। ___यक्ष बोला कि-हे सेठ ! यद्यपि तू निरीह है, तथापि तेरे पुत्र आदि को सन्मार्ग में लाने के लिये मेरा एक वचन मान तब सेठ के हां करने से वह बोला कि-मेरे इस घर के चारों कोनों में बड़े २ निधान गड़े हुए हैं, उन्हें तू ले लेना. यह कहकर यक्ष अपने स्थान को गया और सेठ भी अपने घर आया। तब से वह धर्म में विशेष लीन रहने लगा उसे देखकर उसकी दुष्टचित्त स्त्री कहने लगी कि, हे मूर्खशिरोमणि ! व्यर्थ
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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