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________________ तपनियमादिकरण का स्वरूप १०५ चन्द्र को उत्पन्न करने के लिये समुद्र के समान स्वाध्याय में निरन्तर प्रयत्न शील होओ। इति श्येन श्रेष्ठी कथा गुणवंत लक्षण के स्वाध्याय करना यह प्रथम भेद कहा । अब करण नामक दूसरे भेद का वर्णन करने के लिये आधी गाथा कहते हैं। तवनियमवंदणाई करणमि य निच्चमुज्जमा ॥४४॥ मूल का अर्थ-तप, नियम और वन्दन आदि करने में नित्य उद्यमवन्त रहे। टीका का अर्थ- तप, नियम, वन्दन आदि के करण में अर्थात् आचरण में चकार से कारण (कराना) और अनुमोदन में भी नित्य प्रतिदिन प्रयत्नशील रहे। वहां तप, अनशन आदि बारह प्रकार के हैं, क्योंकि कहा है कि अनशन, उनोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश और संलीनता. इस प्रकार छः प्रकार का बाह्य तप है। प्रायश्चित, ध्यान, वैयावृत्य, विनय, कायोत्सर्ग और स्वाध्याय. यह छः प्रकार का अभ्यंतर तप है। नियम याने साधु की सेवा करने का, तपस्वी के पारणे में तथा लोच करने वाले मुनि को घो आदि देने के विषय में (अभिग्रह)। क्योंकि कहा है कि__ मार्ग में चलकर थके हुए, ग्लान, आगम का अध्ययन करने वाले, लोच करने वाले, वैसे ही तपस्वी साधु के उत्तरपारणे दिया हुआ दान बहुत फलवान होता है।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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