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________________ परुषवचनाभियोग वर्जन पर इतने में रेवती मद्यपान से मत्त हो कर वहां आकर हाव भाव और विलास आदि से महाशतक को बहुत बार उपसगे करती, तथापि वह महात्मा वह सब भली भांति सहन करता था। इस प्रकार उसने सम्यक् रीति से श्रावक की एकादश प्रतिमाएं पूर्ण की पश्चात् अपना अंतिम समय समीप आया जान कर उसने विधिपूर्वक अनशन किया। शुभभाव वा उसे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ, जिससे वह उत्तर दिशा के अतिरिक्त अन्य दिशाओं में लवण समुद्र में हजार योजन पर्यन्त देखने लगा। उत्तर दिशा में हिमवत् पर्वत पर्यन्त और नीचे रत्नप्रभा के लोलुप नामक नरक पर्यन्त चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाले नारक जीवों को देखने लगा। इतने में वह पापिनी रेवती मदोन्मत्त होकर वहां आकर दासह ( कामरूप ) रागाग्नि से संतप्त हो उसे उपसर्ग करने लगी। तब महाशतक ने विचार किया कि- यह ऐसी क्यों हो रही है ? तब उसने अवधिज्ञान से उसका सकल चरित्र तथा नरकगामीपन जान लिया। जिससे जरा कुपित हो कर वह बोला किहे पापिनी, नीच, निर्लज ! अभी भी तू कितना पाप उपार्जन करेगी? क्योंकि आज से सातवीं रात्रि में तू अलसिया की व्याधि से मर कर लोलुप नरक में उत्पन्न होनेवाली है। यह सुन कर रेवती का मद उतर गया और वह विचारने लगी कि- आज मुझ पर महाशतक अति-कुपित हुआ है जिससे तथा मृत्यु के भय से कांपती हुई, दुःखित मन से वह अपने घर आई। इतने में वहां पधारे हुए वीरप्रभु ने गौतम को कहा कि-हे वत्स! तू जाकर मेरे वचन से महाशतक को कह कि- हे भद्र!
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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