SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाशतक श्रावक का दृष्टांत कब पालूगा ? मैं कुशील का संगत्याग करके गुरु के पदपंकज की रज को स्पर्श करता हुआ योग का अभ्यास करके संसार का उच्छेद कब करूगा ? मैं वन में पद्मासन से बैठा रहूँगा, मेरी गोद में हिरन के बच्चे आ बैठेंगे और समूह के सरदार बड़े हरिण मुझे कब आकर सूघेगे ? ___मैं मित्र व शत्रु में, मणि व पत्थर में, सुवर्ण व मिट्टी में वैसे ही मोक्ष और भव में भी समान मति रख कर कत्र फिरूंगा ? इस प्रकार नित्य-क्रिया करता हुआ निरभिमानी मनुष्य गृहवास में रहते भी सिद्धि सुख को समीप लाता है। यह सुनकर महाशतक आनन्द के समान गृहि-धर्म अंगीकृत कर, प्रसन्न होता हुआ अपने घर आया और स्वामी भी अन्य स्थल में विचरने लगे। उसका सहवास होते हुए भी पापिष्ठ रेवती को प्रतिबोध नहीं हुआ। क्योंकि वह मद्यरस व मांस में गृद्ध थी तथा क्षुद्र व धन में अति लुब्ध थी। ___ उसने अति विषय गृद्धि से पागल हो कर एक समय छः सपत्नियों को शरू प्रयोग से और छः सपत्नियों को विष प्रयोग से मार डाला । पश्चात् उनका द्विपद, चतुष्पद तथा धन माल आदि अपने स्वाधीन कर अनेक प्राणियों की हिंसा करती हुई सदैव कर होकर रहने लगी। जब अमारि पड़ह बजने पर उसे मांस न मिल सका तब उसने अपने गोकुल में से दो बछड़े मरवाकर मंगवाये थे । अब चवदह वर्ष के अंत में महाशतक श्रावक अपने ज्येषु पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंप कर, विरक्त चित्त हो, पौषध शाला में आया।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy